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माटी के तन में / रामगोपाल 'रुद्र'

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माटी के तन में कंचन की यह लौ!

तप की जो आँच सही,
जगती ने ज्योति लही;
रात अभी उतरी ही थी कि फटी पौ!

श्याम बन सजन आया,
राधिका बनी माया;
करके शृंगार चली सात और नौ!
स्वर्ग चकित है निहार
भू का यह दीप-हार;
यक-यक लौ पर न्योछावर पर, सौ-सौ!