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माटी मुलकेगी एक दिन / शिवराम
Kavita Kosh से
नमीं नहीं रही धरती में
बादलों में नहीं रही हया
पानी के नाम पर
रह गया हमारे पास
मुट्ठी भर पसीना
और आँख भर आँसू
ऐसे हालात में भी
हमने बोये स्वप्नबीज
कुछ अंकुराये
कुछ अंकुराये भी नहीं
कुछ अंकुरों में निकली पत्तियां
कुछ में निकली ही नहीं
जिनमें निकली पत्तियां
उनमें से कुछ बढ़ने लगे
शेष मुरझा गये, बढ़े ही नहीं
कुछ लोग विमर्श में जुट गये
हम काम में लगे रहे
अपने पसीने से
धरती को तर करते रहे
हमें भरोसा है
बादल पसीजेंगे एक दिन
फसलें लहकेंगी एक दिन
माटी मुळकेगी एक दिन