माता भक्ति / 3 / भिखारी ठाकुर
प्रसंग:
मानव-जीवन में माता का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। संतान की उत्पत्ति कर, बचपन में उसकी सेवा-सुश्रुषा कर उसे पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाने में माता का बहुत योगदान है। इन बातों का ध्यान रख कर संतान को माता की सुख-सुविधा का ध्यान रखना चाहिए; किंतु कुसंगत में पड़कर, व्यसन के वश में आकर या अपनी पत्नी के कहने में पड़कर संतान माता-पिता का ख्याल नहीं रखते हैं, जो रखना चाहिए माताएँ भूखी, बीमार या अपमानित की जिन्दगी बिताती हैं। वही माता-पिता जब मर जाते हैं, तो उनके श्राद्ध-कर्म में दान-पुण्य एवं गुरुडपुराण सुनने में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा एवं धर्म के लिए व्यर्थ ही किया जाता है। यह एक सामाजिक विडम्बना है, जिसका पर्दाफास लोककवि ने दोहा-चौपाई में बड़े मार्मिक शब्दों में किया है। कवि का लक्ष्य है कि जीवित माता-पिता की उपेक्षा नहीं कर उनकी सेवा सुश्रुषा की जाय तथा अपने सामाजिक महत्त्व के लिए व्यर्थ के कर्मकाण्ड तथा तीर्थ आदि में व्यय नहीं किया जाय।
दोहा
श्री गनेस, श्री सरस्वती, श्री सीतापति राम।
श्री गौरीशंकर जी, सिद्ध करहु सब काम॥
चौपाई
श्री गौरी गनेस त्रिपुरारी। माता-पिता का दुख बा भारी॥
दया करे से बनिहन काम। मातु-पिता का मिली अराम॥
बबुआ भइल बहुत सवखीन। नर-तन अब कब पइब फिन॥
एह जून खुलल बा स्वर्ग के रहता। रतन अनमोल मिलल बा साहता।
का निरगुन-सगुन एह जून। सेवा कइके लुटिलऽ पून॥
बबुआ हउई मइया तोर। सरवन बनि के पोंछहू लोर॥
निरगुन पेट में रखली जहिया। सरगुन गोदी खेलवली तहिया॥
कुली बनि के ढोवले चलली। ई दुख भइल तबना जनलीं॥
गूह-मूत कइली बनिके भंगी। तजि दिहलऽ देखिके अरधंगी॥
धोबी बनि के गड़तर साफा। कइली तवन ना लउकल नाफा॥
दूध पिअवली अवटली तेल। से मइया का सुख ना भेल॥
जीअत में दुख कइली मातारी। पाछे का करबऽ चनन जारी॥
रहन ना नीमन देखलीं तोर। भीतरे मन रोअत बा मोर॥
चउपाई में कहत ‘भिखारी’। तोहरा के हँसी नगर नर-नारी॥
तेरह सौ संतावन हऊवन। सावन सुदी स्पष्ट होई गउअन॥
सनी वार के लिखनी भइल। लोग कही ककिया मरि गइल॥
दोहा
दोस लगिहन होस बिना, तब राखबऽ मन भवन।
मुअला पर पाछे पछतइबऽ, अकिल चलइबऽ कवन॥
चौपाई
लउकत नइखे देखत बानी। का ई भइल ई अकथ कहानी॥
बेटा-पतोह नित कइलन जूध। मुअला पर लागत बा दूध॥
जब काकी होई गइली राही। पूड़ी-खीर कचरलन दाही॥
जिअता में लोटलसि ककिया। दान होखत बा तोसक-तकिया॥
जिअता में मिलल ना मान से पानी। दान होखत बा सोना चानी॥
जिअता में चलत अखरिये पाऊँ। दान होखत बा जूता-खराऊँ।
लुगा-झूला-खरपा अब आई। दान होई तब पहिरी माई॥
जिअत में मिलल ना निमन बात। लड़िका-सेयान बोलत अनसात॥
मानऽ पूत पुरोहित के कहना। इहे पहिरलऽ गत्तर में गहना॥
जिअता में देलऽ ना सतुआ-नून। करबऽ दान तब होई पून॥
जिअता में बीतल परत उपास। लोग खात बा सातो रास॥
कनियां का माड़ ना लोकनी का बुनियां। बहुत दिन के रहली पुरनिया॥
होखत बा खुशी से खटिया दान। खेतवा दिआता बिरित-बेलगान॥
धूप, दीप, नयबेद दिआता। फूल चढ़ाई के पून लिआता॥
आँख में घेरलस मोतियाबीन। जिअता में ना भइलऽ लवलीन॥
कहत ‘भिखारी’ अइसन होता। सुनि के समुझऽ नीके सरोता॥
दोहा
सांढ दगइलन, ब्राह्मण खइलन, भइलन छाता दान।
जिअता में सुख ना कइलन तब, झुठहूँ भइल टिपवान।
चौपाई
पिंडा में पंचमेवा परल। मरनिहार के छूधा भरल॥
हम ना देहब विप्र के दोस। अपना मन में नइखे होस॥
ब्राह्मण कइले बाड़न प्रथमें। पुस्तक देखि के कथा अरथ में॥
सरवन पूत के कहलन लीला। सुनि के तनिक ना कान करीला॥
जिअता में बहुआ भइलू चाँड़। मुअला पर मत दीह माँड़॥
जिअता भर छछनाइ के बाया। मत जइह झुठहूँ के गाया।
नाहीं त खरचा होइहन दाम। पून ना मिलिहन एक छदाम॥
मातु-पिता के जिअता भर में। करिहऽ सेवा रहिकर घर में॥
दोहा
सकल तीरथ के फल होई जाई। लउकत बाटे सहज उपाई॥