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माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः / मेघदुन्दुभि / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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रश्मि-तरंगों से आन्दोलित अमृत-गर्भ से जिस दिन,
प्रकट हुई तुम हे वसुन्धरे विश्व-भुवन में अमिलन।
राशि-राशि सौन्दर्य उसी दिन अर्थ निगूढ़ अलंकृत,
अभिव्य´्जित हो गए तुम्हारे अन्तरंग मंे दीपित।

टूट-टूट कर अन्तरिक्ष से ताराग्रह प्रिय सुन्दर,
चन्द्रहार बन न्योछावर हो गए तुम्हारे ऊपर।
बिछा हृदय के कोष तुम्हारे चरण-कमल पर पावन,
महासिन्धु लहरों से करने लगा तुम्हारा अर्चन।

कर सकता है कौन कल्पना के रंगों से नूतन,
उस असीम सौन्दर्य-पु´््ज की प्रसव-व्यथा का अंकन?
जिसके उर्वर रत्न-गर्भ से वर्णप्रभामय अभिनव,
शुक्ल पक्ष के पूर्णचन्द्र-सा हुआ तुम्हारा उद्भव!

अरुणाचल से अस्ताचल के स्वर्ण शृंग तक विस्तृत,
सिन्धुस्तनित हे भूमि, तुम्हारी कीर्त्ति-कौमुदी विकसित।
भुवनव्यापिनी करुणा से है पूर्ण तुम्हारा अन्तर,
प्रवहमान जिसमें जीवन का सोम-सुधा-रस-निर्झर।

भूमि, तुम्हारे गिरि-वन में होकर किस ऋतु में मादन,
गर्जन करते हुए निकलते कु´््जर-से कज्जल घन?
किस ऋतु में किस समय तुम्हारे अहोरात्र अभिषेकित,
किस औषधि में करते हैं निज संजीवनरस-स´््िचत।

किस ऋतु में कब हे वसुन्धरे, दुर्धर शिशिर-प्रभ´््जन,
झुलसा देता तुहिन-शीत से द्रुम-निकु´््ज को शोभन?
ऋतु वसन्त के किस क्षण में तुम किस प्रसून को भूषित,
कर देती हो मणिका´््चनप्रभ रंग-तूलि से र´््िजत?

कहाँ-कहाँ से जाती हैं कब किस ऋतु में सम्मोहन?
उड़ती हुईं तुम्हारी स्वर्ण तितलियाँ नयनविलोभन?
कहो, तुम्हारे प्रियदर्शी प्रांगण मंे करने मंगल,
मानसरोवर से आते कब क्रौ´््च, हंस यात्री-दल?

चले कहाँ कब जाते करते हुए गनन में कलरव?
सुर्ख कासनी ग्रीवावाले चक्रवाक, कारण्डव?
गन्धक्षीर से पूर्ण धान की बालों को खा प्रमुदित;
रत्नप्रसू हे भूमि, तुम्हारे खेतों से स्वर्णांकित?

जिस उत्कण्ठा से तुम दुलरातीं परिरम्भण में भर,
चूम-चूम कर निशिगन्धा चमपा, गुलाब को सुन्दर!
उसी ललक से, आकुलता से अधर तुम्हारे कोमल,
चूम रहे तीखे काँटोवाले बबूल को प्रतिपल!

झाड़, कु´््ज, उद्यान तुम्हारे केशर-चन्दन के वन,
देते मुझे आत्म-परिचय का नव-नूतन आमंत्रण!
लता-वल्लरी काण्ड-पत्र, कुश-घास, फूल, तृण, तरुवर,
अन्तरंग प्राणों के हैं, मेरे सुख-दुख के सहचर।

कभी तुम्हारे घन में छा जाते विप्लव के सावन,
अन्तर्विग्रह क्रान्ति द्वन्द्व के होते ताण्डव नर्त्तन।
कभी तुम्हें झकझोर डालते भू-प्रकम्प प्रलयंकर,
वज्रघोष से गगनविकम्पन करते हुए बवण्डर।
किन्तु, तुम्हारा केन्द्र-बिन्दु नव किरणबिम्ब से मण्डित,
नहीं कभी होता भीषण कम्पन-तरंग से विचलित।

स्वर्णिम कस्तूरी कुरंग के नाभि-विवर में सुरभित,
मदोन्मत्त गज के गण्डस्थल में, तुरंग में उर्जित।
तरुणी के भू्रधनु में जो मुस्कान तुम्हारी बिम्बित,
रूपराशि, लावण्य-कान्ति, मदगन्धसार अन्तर्हित।
हे वसुन्धरे, करो मुझे भी तुम उनसे अनुप्राणित,
मरणहीन दो रूप रूप से हीन मरण को निश्चित।

वसुन्धरे मैं पुत्र तुम्हारा, तुम जननी हो पूजित,
अग्निफूल जीवन के तुमसे तिमिरगर्भ में विकसित।
रहें नहीं या रहें पिरमिड कलाभवन शशिउपमित,
नयनमनहरण ताज, हर्म्य, प्रासाद सुवर्णविभूषित।
किन्तु, तुम्हारा चित्र रहेगा हृदय-हृदय में अंकित,
इस दिगन्त से उस दिगन्त तक छन्दप्राणमय झंकृत।

(‘नया समाज’, जनवरी, 1952)