मातृत्व / प्रतिभा सक्सेना
वन में मंगल छाया सीता पवित्र -स्नान किए बैठी,
भीगे केशों को गन्ध-धूम दे-देकर सुखा रहीं कन्याएं ऋषियों की!
माथे पर अंकित है सौभाग्य-तिलक, मिथिला से आई अरुण-पीत चुनरी,
वन-लक्ष्मी आ बैठी ज्यों आश्रम में, अपनी ही उज्ज्वल आभा में निखरी!
नन्हीं-नन्हीं मुट्ठियाँ बाँध सोए दोनों शिशु ऊपर किरणों की जाली,
काले धागों की पहुँची हाथों में, करधनी पड़ी कटि में फुँदनोंवाली!
चंदन का पलना रेशम की डोरी, चाँदी के घुंघरू चमक रहे चम्-चम्,
डोरी हिलते ही पलना डोल उठे, घुंघरू की मीठी ध्वनि हो छनन्-छनन्!
ऋषि-जायाओं ने पारा था काजल, वन-औषधियों के रस से निर्मित कर,
साना था लेकर काँसे की थाली, सौ बार उसी में गोघृत धो- धोकर,
दो-दो लालों से भरी गोद जिसकी, उसके यौवन की सफल सार्थकता,
जीवन को गढ़ने का स्वर्णिम अवसर, क्या इससे बढ़कर कोई तप होता?
संततियां जन्में कहीं, कहीं जाएं, नर तो क्षण का सुख भोग, अलग होता,
नारी जीवन साधना सुरचना की, सबसे पूज्या है इसीलिए माता!
मेवे के लड्डू काँवरिया भर-भर, घट भरे हरीरा और पँजीरी के,
मिष्ठान, बताशे मह-मह था चिवड़ा भेंटें आईं मातामह के घर से!
झँगले लँगोटियाँ रंग रंग रेशम, टोपियां फुंदनियां औ झालरवाली,
नन्ही पैंजनियां पहुँची कठुली भी, ओढ़ें शिशु ऐसी वस्त्रों की जाली!
झल्ली में भरे खिलौने शिशुओं के, वन-बालक उठा-उठा कर पुलक रहे,
मुट्ठी-मुट्ठी भर चिउड़ा मुँह में दे, ऊपर से डाल बताशे किलक रहे!
वस्त्राभूषण से भरी पिटारी भी, सीता की पियरी रेशम से निर्मित,
मणि-रत्नोवाले वलय कलाई-भर, श्यामा गौएं आईं थीं वत्स सहित!
श्रृंगार किए वन कन्याएं प्रमुदित, पुष्पाभरणों से महका वन-प्रान्तर,
इंगित कर दिखा रहीं आपस में ही, बतलातीं बहुत दूर इनका नैहर!
मंगल-
सीता ने जाये हैं लाल, जनक के दोहता भये!
माता सुनयना ने पियरी पठाई,
भर-भर कँवरियन मेवा मिठाई,
लड़ुअन के अंबार,
जनक के...
नये-नये कपड़न से भर दीं बकुचियाँ,
झँगले, लगुँटियाँ औ झाँझर कठुलियाँ,
मणि-मुकतन के हार,
जनक के...
ढोलकिया खनकै औ बाजे बँसुरिया,
कोलन-भिलनियन ने पहनी चुनरिया,
नाचें किये सिंगार,
जनक के...
जंगल में मंगल के साज सजे रे,
भाग हमारे कैसे जगे रे,
चिर जीवो दोनों कुमार!
जनक के...
नाम-करण-
ऋषि बुला रहे, "पुत्री अब देर न कर, इस नाम-करण का शुभ मुहूर्त ये ही!"
इतने में हलचल औ कोलाहल की ध्वनियाँ कलरव मय प्रान्तर में गूँजीं!
कुछ सैनिक विनय-भाव से अनुमति ले, ऋषि को प्रणाम करते आगे आए,
शत्रुघ्न साथ में वीर-वेश धारे आगे बढ़ चरणों में ही झुक आए!
"तुम यहां? इस समय? सैन्य सहित? शत्रुघ्न, कहो कैसे आए?"
"लवणासुर पर पाई है जय, ऋषिवर प्रणाम करने आए!"
"कैसा सुयोग जय पाई है तुमने, माथे पर होगा अब मंगल-टीका,
वैदेही के पुत्रों का नाम-करण, आशीष मिले उनको पितृव्य ही का!"
इतने में सीता कुटिया से बाहर, निकली कि बुलाया है ऋषि ने सत्वर,
शत्रुघ्न दौडकर बढ़े तुरत आगे, धर दिया शीश भाभी के चरणों पर!
सत्कार सहित देवर को बैठाया, आशीष उचरते गद्गगद् वचन हुए,
रिपुदमन झुकाए शीश, हृदय विह्वल अभिभूत, अश्रु परिपूरित नयन हुए!
वेदी से ऋषि के स्वस्ति वचन गूँजे, शिशुओं के तन पर पावन-जल छिड़का,
उजले-उजले उन नन्हे माथों पर, फिर तिलक कर दिया रोली-अक्षत का!
वन- कन्याएं कर रहीं शंख की ध्वनि, कुछ प्रमुदित, कुछ उदास सी है सीता,
गोदी में समा गए चंदा-सूरज, पावन वन-प्रांगण तेज दीप्त मुखडा!
नूतन किसलय से कोमल पद-करतल, दे दिया दिठौना उजले माथे पर,
गभुआरे केश सुनहरे घुंघराले, आ बिखर गए उनके कमलानन पर!
शत्रुघ्न पसारे दोनों कर पुलकित, कुँवरों को हृदय लगाने को आकुल,
अति विवश, कण्ठ वाष्पित, वाणी रुँधती, नयनों की दृष्टि आँसुओं से धूमिल!
"कुश पातों में आकर जन्में कुश नाम धरो प्रिय वत्स, यथा,
लवणासुर का संहार हुआ तुम लव कहलाओ पुत्र सदा!"
दोनो कुँवरों को हृदय लगा, झर-झर-झर-झर-झर पड़े नयन,
भाभी के चरणों पर सिर धर, कुछ कह न सके वे आकुल मन!
आश्वस्ति हाथ पा सीता का प्रस्थान हेतु आज्ञा चाही,
उपचार बिदा का करने को वैदेही आगे बढ आई!
पुरइन के पातों में धरकर अक्षत-रोली, दधि-दूब विहित,
फल-फूल हाथ में दे देवर के बोली वाणी प्रेम सहित
"अक्षत-सुमन माँ की गोदी में देना लेंवेंगी अँचरा पसार,
रोली-तिलक दधि देवर तुरत बढ़ धारेंगे माथे चढ़ाय,
सिन्दूर फल मेरी बहिनों को देना होवे अचल अहिवात,
बाकी का रोचन-अखत मोरे बीरा, दीजो जनकपुर पठाय!"