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मातृत्व / शैलप्रिया
Kavita Kosh से
हे सखि
औरत फूलों से प्यार करती है
कांटों से डरती है
दीपक-सी जलती है
बाती-सी बुझती है
एक युद्ध लड़ती है औरत
खुद से, अपने आसपास से
अपनों से
सपनों से
जन्म से मृत्यु तक
जुल्म-सितम सहती है
किंतु मौन रहती है
हे सखि
कल मैंने सपने में देखा है
मेरी मोम-सी गुड़िया
लोहे के पंख लगा चुकी है
मौत के कुएं से नहीं डरती वह
बेड़ियों से बगावत करती है
जुल्म से लड़ती है
और मेरे भीतर
एक नयी औरत
गढ़ती है!