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मातृभाषा / रसूल हम्ज़ातव
Kavita Kosh से
अपनी ही भाषा में सुनकर कुछ धीमी-धीमी आवाज़ें
मुझे लगा कुछ ऐसे, जैसे जान जिस्म में फिर से आए
समझ गया मैं वैद्य-डॉक्टर मुझे न कोई बचा सकेगा
केवल मेरी अपनी भाषा, मुझे प्राण दे सके, बचाए ।
शायद और किसी को दे दे, सेहत कहीं अजनबी भाषा
पर मेरे सम्मुख वह दुर्बल, नहीं मुझे तो उसमें गाना
और अगर मेरी भाषा के, बदा भाग्य में कल मिट जाना
तो मैं केवल यह चाहूँगा, आज, इसी क्षण ही मर जाना ।
मैंने तो अपनी भाषा को, सदा हृदय से प्यार किया है
बेशक लोग कहें, कहने दो, मेरी यह भाषा दुर्बल है
बड़े समारोहों में इसका, हम उपयोग नहीं सुनते हैं
मगर मुझे तो मिली दूध में, माँ के, वह तो बड़ी सबल है ।
मूल रूसी से अनुवाद : मदनलाल मधु