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मातृभाषा / सत्या शर्मा 'कीर्ति'

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अकसर अपनी आंतरिक तृप्ति
के पलों में
बो देती हूँ अपनी भावनाओं के कोमल बीज
जहाँ निकलते हैं शब्दों के नाजूक कोमल से फूल
जिन्हें हौले से तोड़ कर
सजाती हूँ पन्नो के ओजस्वी कंधों को

वर्णों की रेशमी धागों को
बाँधती हूँ कलम की सशक्त
कलाई पर / और छंदों के नावों संग घूम आती हूँ गीतिका के
लहरों पर / जहाँ मात्राओं
की अनगिनत उर्मियों देती है जन्म कोई भावुक-सी कविता।
तब अनायास ही खिलखिला
पड़ते हैं हजारों अक्षर
दीपावली के जगमगाते जीवंत
दियों जैसे
तब मेरे मन के पायदान से
उतर आते हैं कदम दर कदम
किसी देव पुत्र सा
कहानियों के अनेक चरित्र
जो ले जाते हैं मुझे
किसी उपन्यास की
खूबसूरत वादियों में

तब मैं और भी हो जाती हूँ समृद्ध / जब सुसज्जित-सी व्याकरणमाला करती है मंगलाचरण हमारी मातृभाषा का
और सौंदर्य से जगमगाती
हमारी तेजस्वी हिंदी
करती है पवित्र हमारी जिह्वा
को / करोड़ो हृदय को करती है आनन्दित

और देती है आशीष हमें
हिंदी भाषी होने का।