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मातृ-मुक्ति / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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सब कहैत अछि थिक अनित्य ई मायामय संसार,
वेद-पुराण सकल सद्ग्रन्थक सम्मत एक विचार।
जीव थिका कर्मक अधिकारी फलक न राखथु ध्यान,
गीतामे अपने कहने छथि योगेश्वर भगवान।
किन्तु जीव भय मोह-विवश छन-छन पर से बिसरैछ,
जाहि कारणेँ मोह-पंकमे अपनहि जाय फँसैछ।
धन्य विधाता, रचलनि भूपर पावन मानव-वंश,
पंचतत्तमे पुनि मिलि जाइछ पाँचो तत्त्वक अंश।
आत्मा थिका नित्य, सत्कर्मेँ ओ पाबथि विश्राम,
उदाहरणहित अपन देशमे भेटत शत-शत नाम।
पथ प्रशस्त कय सकइछ केवल आत्म-गुणक आलोक,
जाहि प्रकाशित पथपर चलइत रहइछ मानव-लोक।
किन्तु ताहिलय चाही पहिने अपन स्वरूपक ज्ञान,
अन्तर्हित छथि जाहिमध्य ओ तेज-पुंज भगवान।
थिक शरीर आवास मात्र, पुनि तकरासँ की मोह,
एक किरण कथमपि नहि करइछ अपर किरणसँ द्रोह।
अन्तकालमे क्षुद्रजीव भय आत्म-तत्त्वमे लीन,
परमात्माक विराट रूपमे होइछ जाय विलीन।
ई नहि तर्कक विषय थीक अछि शास्त्र-पुराण प्रमाण,
आत्मा ज्ञानक संबलपर पबइत छथि पद निर्वाण।
कर्मे थिक सर्वार्थ-सिद्धि-हित अनुपम साधन, युक्ति,
कर्मलोकमे राग-द्वेषसँ पबइत छथि सब मुक्ति।
चिन्तशील एक ई प्राणी रखइत अछि जिज्ञासा,
के थिकाह ओ जगन्नियन्ता, की तनिकर परिभाषा।
ममतामयी हमर माताकेँ कर्मक छलनि भरोस,
जीवनभरि रहि कर्म-निरत, नहि देल भाग्यकेँ दोष।
महाप्रयाणक समयहुमे दय कर्मक शुभ आदेश,
त्यागल तन, नहि शेष रहल मोहक वा क्लेशक लेश।
नेत्र निमीलित भेलनि शून्यमे, पहुँचल भक्ति-विमान,
उत्तराभिमुख कय शरीरकेँ कयल स्वयं प्रस्थान।
जीवनभरि पातिव्रत धर्मक सबकेँ शिक्षा देल,
बालहुसँ यदि भेटि सकल तँ ज्ञानक भिक्षा लेल।
मुक्तिनाथ-पद सेवल यत्नेँ पौलनि अनुपम मुक्ति,
भय प्रसन्न तन अंक लगौलनि जननी-भूमि त्रिभुक्ति।
जनकि शिष्य उपशिष्येँ घरघर मिथिला माता धन्या,
अमर, गणेश जनिक दुइ सुत आ अन्नपूर्णा कन्या।
अम्बक ऋणसँ उबरि सकब यदि जन्म-भूमिकेँ सेबब,
हुनकेलय आदर्श, उदधिमे जीवन-नौका खेबव।
बिसरत नहि जीवनभरि हुनकर ‘बतहू’ पदक सिनेह,
ताबतधरि सुमिरब जाबतधरि रहत बचल ई देह।