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मात्र धूल / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
एक दुनिया गुजरती है
हम में से हर शख्स का
कुछ न कुछ छूट जाता है
एक दूसरे के पास
अक्सर बहुत मामूली
तो कुछ बहुत कीमती भी
हर चीज को
रद्दी की टोकरी में तो नहीं
फेंक सकते
पूरा का पूरा लौटा भी नहीं सकते
कितना भी धो पोंछ कर लौटा दो
मिले हुए को
उस लौटे हुए के साथ
हम खुद भी चले जाते हैं
अपना उजला पर लेकर
घने जंगल में
खामोशी के विस्तार में
जैसे बुने जाते हैं जाले
बनाए जाते हैं घोसले
खोदे जाते हैं बिल
जीवन का शरीर से
इतना ही रह जाता है रिश्ता
बाकी सब मात्र धूल