भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माथे का चांद / वत्सला पाण्डे
Kavita Kosh से
मेरे माथे के चांद को
चुरा लिया
एक अंधेरी रात ने
मैं ढूंढ़ती उसे
काली रात की पहचान
करूं भी तो कैसे
बस पहचान सकती हूं
अपना चांद
रह गया एक निशान
माथे पर
जहां चमका करता था
चांद