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माद्री / कुलदीप कुमार

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पति चले गये
अपने पितरों से मिलने
अब मुझे भी उनकी देह के साथ
चिता की लकड़ी की तरह जल जाना है

जलती ही तो रही हूँ अब तक
अन्तर केवल इतना ही है
कि
आज मेरे मन के बजाय
मेरी देह से
लपटें निकलेंगी
मेरा पीताभ मुख पति
महान योद्धा
दशार्ण, मगध, विदेह, काशी, सुह्य और पांडू देशों का विजेता
उसकी वीरता के वर्णन सुनकर ही
मोहित हो गयी थी मैं
जब पता चला कि मेरे पिता को अनेक अमूल्य उपहार
और प्रचुर धन देकर
भीष्म मुझे पांडु के लिए प्राप्त करने आये हैं

तब क्या पता था कि
इस अमरबेल के भीतर
जीवनरस चूसने वाला
काल का कीड़ा छुपा हुआ है

राजमहल के भोग-विलास ने
उसे बचपन में ही ऐसी असमर्थ कामेच्छा से भर दिया था
जो न स्वयं तृप्त हो सकती थी
न किसी को तृप्त कर सकती थी
वह तो एक व्याधि थी
जिसने व्याध की तरह
कामना के शर से
उसका जीवन हर लिया

इतना बड़ा शूरवीर
और
पुंसत्वहीन!

कुन्ती मेरी जेठानी
कैसी मीठी कैसी चतुर
पति को समझाया
धृतराष्ट्र पुत्र पर पुत्र हुए जा रहे हैं
और तुम्हारा एक भी नहीं
तो क्या तुम्हारा वंशवृक्ष यहीं सूख जायेगा?

दुर्वासा ऋषि के मन्त्र की बात बताकर
मना ही लिया उसे
नियोग के लिए

तभी तो हम हिमालय के एक वन-प्रान्तर में आये ताकि किसी को भी पता न चल सके
कि यहाँ क्या घटित हो रहा है

और फिर,
पैदा किये तीन-तीन पुत्र
भोगा देवताओं के साथ सहवास का सुख
पर क्या मजाल जो कभी
मेरी चिन्ता की हो

जब भी मैंने मनुहार की
मुझे भी दिला दो अनुमति
मुझे झिड़क दिया उसने एक कुटिल मुस्कान के साथ सौतिया डाह उसमें कम नहीं है

उसे हर समय यह भान रहता है
कि वह एक बड़ा पहाड़ वाली हृष्ट-पुष्ट औरत है जबकि मैं कवि की कोमलकान्त पदावली जैसी सौन्दर्यरस से भरी हुई
कामिनी

पांडु काम के वशीभूत हो
मँडराता तो मेरे आस-पास रहता था
लेकिन
पति पर शासन तो सदैव उसी का रहा

एक बार एकांत में अवसर मिला तो
मैंने पाण्डु से कहा
मुझे आपसे ही पुत्र चाहिए
वह समझ गया मेरे मन की बात
सामर्थ्यरहित था तो क्या
हृदय तो उसने प्रेमी-पति का पाया था

उसने कुन्ती को आदेश दिया
हाँ, आदेश ही दिया
कि वह मुझे भी
देवताओं को बुलाने का मन्त्र दे

कुंती के मुखमण्डल पर किन-किन रंगों के बादल छाये मैं आज तक नहीं भूली हूं

और जब मेरे दो पुत्र हो गये
तो कुन्ती को चिन्ता होने लगी
उसके तो तीन ही हैं
यदि मेरे चार हो गये

तो उसकी महत्ता घट जायेगी
बस
अगली बार उसने मुझे मन्त्र देने से
साफ़ इनकार कर दिया

पाण्डु यदि स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रख पाया
तो मेरा क्या दोष
मेरा पति था वह आख़िर
कैसे मना कर सकती थी उसे
लेकिन कुन्ती ने एकमात्र मुझे ही दोषी ठहरा दिया

अब मेरे पास क्या विकल्प है
सिवाय पाण्डु के शव के साथ जल जाने के
यहाँ भी रहकर क्या करूँगी
जली-कटी सुनते हुए जेठानी की जीवन भर सेवा?
न...न...
ऐसी जेठानी की सेवा करने से अधिक श्रेयस्कर है चितारोहण
कम-से-कम
सती तो कहलाऊँगी

इस गर्वोन्मत्त कुरुवंश
का नाश तो होना ही है पर
मुझे नहीं देखना पड़ेगा

नकुल-सहदेव को कुन्ती ही पाल लेगी
इस मामले में वह विशाल हृदय वाली है
पृथा है
पृथ्वी की तरह
बहुत बोझ सँभाल सकती है

हिमालय की इस उपत्यका में
जहाँ चारों ओर सौन्दर्य ही सौन्दर्य है
जीवन से विदा ले रही हूँ

जलते समय होने वाले कष्ट का अनुमान लगाकर
काँप रही हूँ
लेकिन प्रारब्ध से कौन बच सका है
जो मैं बचूँगी
विदा