माधवजू, जो जन तैं बिगरै / सूरदास
राग सारंग
माधवजू, जो जन तैं बिगरै।
तउ कृपाल करुनामय केसव, प्रभु नहिं जीय धर॥
जैसें जननि जठर अन्तरगत, सुत अपराध करै।
तोऊ जतन करै अरु पोषे, निकसैं अंक भरै॥
जद्यपि मलय बृच्छ जड़ काटै, कर कुठार पकरै।
तऊ सुभाव सुगंध सुशीतल, रिपु तन ताप हरै॥
धर विधंसि नल करत किरसि हल बारि बांज बिधरै।
सहि सनमुख तउ सीत उष्ण कों सोई सफल करै॥
रसना द्विज दलि दुखित होति बहु, तउ रिस कहा करै।
छमि सब लोभ जु छांड़ि छवौ रस लै समीप संचरै॥
करुना करन दयाल दयानिधि निज भय दीन डर।
इहिं कलिकाल व्याल मुख ग्रासित सूर सरन उबरे॥
भावार्थ :- जीव के प्रति भगवान की असीम करुणाशीलता है। कितना ही कोई अपराध करे, करुणामय हरि उसे क्षमा ही करते हैं। बच्चा कितने ही अपराध करे, माता तो उसे छाती से लगा कर प्यार ही करेगी। मलयागिर कुठाराघात करने वाले के शरीर को भी शीतलता देगा। धरती को हल से जोतते हैं, उसे विदीर्ण करते हैं, फिर भी वह दुःखों को झेलकर सुन्दर फल देती है। जीभ की भी यही बात है। सदा दांतों तले दबी रहती है, पर कभी दांतों पर क्रोध नहीं करती। छहों रसों का स्वाद उनको चखाती है। ऐसे ही ईश्वर अपनों के अज्ञानावस्था में किये अपराधों को क्षमा कर देता है।
शब्दार्थ :- तऊ =तो भी। नहिं जीय धरै =मन में नहीं लाते। जठर अन्तर्गत = पेट के
भीतर, गर्भ में। अंक =गोद। रिपु =शत्र, काटने से तात्पर्य है। धर =धरा, पृथ्वी।
नल =नाला। करषि =जोत कर। द्विज =दांत।