माधव आ गये / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
दिन-रात की मोहक सुन्दरता,
बिखराने में रूप ही एक हुआ है।
भरी मादकता है चराचर में,
श्लथ संयम धैय विवेक हुआ है।
लदी डालियाँ हैं सुमनों से सभी,
शुचि सौरभ का अतिरेक हुआ है।
वनवास लिया पतझार ने, प्यारे
बसन्त का राज्याभिषेक हुआ है।
पूर्व दिगन्त के माथे प्रभाती लगा,
रही रोली कि माधव आ गये।
रास रचाने लगे अलिवृन्द, सजी
धजी टोली कि माधव आ गये।
खूब मची है मनोहरता भरी,
रंग-रंगोली कि माधव आ गये।
फूल लुटाने लगे हैं पराग,
कली-कली बोली कि माधव आ गये।
लगे झूमने बाग के बाग हैं मोहक,
मन्थर वात के स्वागत में।
अलिवृन्द भी नृत्य में लीन हुए,
हैं खिले जलजात के स्वागत में।
बिखराने लगी छवि की छटा प्राची,
दिशा दिवानाथ के स्वागत में।
करने लगे हैं द्विज मंगल गान,
मनोज्ञ प्रभात के स्वागत में।
फूल हैं रंग-रंगीले खिले,
अलिवृन्द सभी चितचोर हुए हैं।
कोमल अंग लता के दुखा रहे,
वायु के झोंके कठोर हुए हैं।
मोहक साँझे लगी लगने,
सुखदायी मनोहर भोर हुए हैं।
मस्त बसन्त के मौसम में,
मधुपी-मधुपी सराबोर हुए हैं।
क्यों न हँसी बिखराये निशाकर,
चाँदनी रात का साथ मिला है?
क्यों न लताएँ प्रफुल्लित हों,
उन्हें मन्थर वात का साथ मिला है?
क्यों न हँसे मुसकाएँ प्रसून,
मनोज्ञ प्रभात का साथ मिला है?
क्यों न खुशी अलिवृन्द मनाएँ,
खिले जलजात का साथ मिला है?
है बिखरी-बिखरी छवि, कि छटा
पीर-प्रदाह बढ़ाने लगे हैं।
देख वियोगियों को जड़-जंगम,
वेदना के घर जाने लगे हैं।
लोचनवारिज सावन के, जल
बिन्दु घने बरसाने लगे हैं।
रूप के व्योम में केश घने,
घन से घरने घहराने लगे हैं।
घायल-सा उर-अन्तर है,
कुछ भी न सुहा रहा है मुझको।
दूर गये जब से तुम तो कुछ,
रास न आ रहा है मुझको।
कान में कुहू-कुहू कोयल का स्वर,
नित्य सता रहा है मुझको।
लाल बसन्ती विहान वियोग में
तेरे जला रहा है तुझको।
युगदेव न पाटल चाह रहा,
अब नागफनी उसके मन भायी।
गये हंस चले वनवास को
नाचते काक उलूक चिढ़ी सुधरायी।
ठहरेगा बसन्त कहाँ इस गाँव
रहा नहीं बाग यहाँ सुखदायी।
कर लो अब प्रेम बबूल से
कोयलों! ईद का चाँद हुई अमराई।