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मानदंड / सरिता महाबलेश्वर सैल
Kavita Kosh से
पत्तों का पेड़ पर से गिरना
हरबार उसकी उम्र का
पूरा हो जाना नहीं होता
कभी कभी ये तूफानों की साज़िशे भी होती है
सुहागिनों के मांग में सजा सिंदूर
हरबार उसके प्रेम की तलाश का
पूरा हो जानो ही नहीं होता
कभी कभी ये झूठे मानदंड का वहन मात्र होता है
कलम से बहती स्याही
हरबार लिखाई भर नहीं होती
कभी कभी लहू भी होता है औरत के पीठ का
जिसके हंसने मात्र से उगा लाल रंग का निशान
सागर के तलहटी में स्थित सीप
हर बार मोती ही पोषित नहीं करता
कभी कभी उसके अंदर दफ्न होता है
नाकामयाबी का बांझ-सा एक अंधियारा।