मानने को तो मानते हैं सब / रमेश तन्हा
मानने को तो मानते हैं सब
सब मगर मुझको जानते हैं कब?
सामना मुश्किलों से होता है जब
आदमी आदमी ही बनता है तब।
सारी दुनिया है एक ही रब से
सारी मख्लूक का है एक ही रब।
सबके चेहरों को पढ़ता रहता है,
आइना खुद को देखता है कब?
खा के ठोकर भी कब कोई संभला
ये अगर सच है तो ये सच है अजब।
ज़िंदा रखता है खुद को मर मर के
जाने इंसां को जीना आयेगा कब?
कामयाबी तो मिल ही जाती है
लेकिन इसके भी होते हैं कुछ ढब।
सब से नाज़ुक वो लम्हा होता है
कोई खुद से करीब होता है जब।
ज़ने-कश्मीर वो भी बे शौहर
रह तो सकती है लेकिन एक ही शब।
फ़स्ल भी भुख-मरी भी बे-पायां
नाम इसी का है क्या मशीयते-रब?
मुंसिफी खुद ही जब हो बे-किरदार
कैसी ताज़ीम, कैसा पासे-अदब?
होने वाला नहीं किसी पे असर
अपने ज़ख्मों को क्यों न ढक लें अब।
मौत ही ज़िन्दगी का हासिल है
मौत होती है ज़िन्दगी का सबब।
अब हवा साज़गार है प्यारे
वक़्ते-तशहीरे-ज़ख़्मे-क़ल्ब है अब।
मौत उसका बिगाड़ सकती है क्या
ज़ीस्त ढाती है खुद ही खुद पे ग़ज़ब।
है ख़ला दर ख़ला सफ़र मेरा
मैं किसी भी जगह ठहरता हूँ कब।
चश्मे-बीना ही वो नहीं रहती
खुद को वो आशकार करता है जब।
ज़िन्दगी क्या है आदमी क्या है
इन सवालों का है कोई मतलब?
ज़िन्दगी नेस्ती का अंकुर है
पौ का फटना है जैसे आख़िरे-शब।
जो हमेशा हवा में रहते हैं
ठोस धरती पे वो उतरने हैं कब?
जो न अख़लाक़ में मुनासिब हो,
इश्क़ और जंग में हो क्यों वाजब।
ऐसा मौक़ा न फिर है मिलने का,
बहती गंगा में हाथ धो लो अब।
मौत हर शय को अपनी है 'तन्हा'
चाहे बहरूप भर के आ जाये रब।