भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मानवका है चरम परम शुचि / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(राग जंगला-ताल कहरवा)
 
मानवका है चरम परम शुचि एक लक्ष्य केवल भगवान।
लगे साधनामें जो इसकी, वही सत्य मानव मतिमान॥
होता मंगलमय मानवताका शुभ तभी यथार्थ प्रकाश।
दैवी मानव-गुण-समूहका होता तभी विशुद्ध विकास॥
मानव ही क्यों, सकल चराचर पाते उनसे सुख-विश्राम।
अखिल विश्वकी सहज सुसेवा शुचि उनसे होती अविराम॥
होते पूजन-रूप नित्य उनके सारे आचार-विचार।
नित स्वकर्मसे करते वे केवल प्रभु-सेवाका व्यापार॥
होते सर्वभूत-हित, इन्द्रिय-विजयी, प्राप्त-ज्ञान-विज्ञान।
छूते नहीं उन्हें फिर मिथ्या माया-ममता-मद-‌अभिमान॥
हर्षामर्ष-शोच-‌आकांक्षा-रहित, सहज समता-सपन्न।
सर्व-हितमयी धारा उनसे नित होती रहती उत्पन्न॥
यों प्रभुके शुचि सेवनसे वे करते परम ‘अयुदय’ प्राप्त।
प्रभु-पद-प्राप्ति रूप ‘निःश्रेयस’को फिर वे पा जाते आप्त॥