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मानवता का मनु से निवेदन / कविता भट्ट

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विकृत मानव- त्रस्त मानवता को कहीं मनु मिल गए ,
व्याकुल मुख पर आशा छायी भाग्य जैसे खिल गए ।
प्रणाम तुम्हें हे मानव-पितृ! कह तनिक सकुचायी,
क्या पीड़ा की औषध होगी या रोग रहेगा चिरस्थायी?
न कहना चाह रही थी, किन्तु पुत्रों से विवश तुम्हारे,
विचर रही चिर काल से-निराश अब मात्र तुम्ही सहारे।
किंचित रेखाएँ चिंता की मनु-भाल उभर आयी,
बोले स्पष्ट कहो मानवता क्यों तुम विकल सकुचायी?
बोली मानवता आकाश-चुम्बी भवनस्वामी- मानवों के,
पीड़ित हूँ मैं निम्न होते- अधोगामी चेतना स्तरों से।
मन-कलुषित, हिय- उद्वेलित, अब हुए तुम्हारे पुत्रों के,
कितना सुना पाऊँगी दुश्चिंतन मैं इन अन्तरिक्ष चरों के?
नभ-विजय का उद्घोष करने, ग्रह-नक्षत्र जीतने वाले,
जीत सके न मन स्वयं के, ईर्ष्या-द्वेषों के मत वाले।
घृणित, भ्रष्ट, कलुषित वसुधा-कुटुम्ब विखंडन का हेतु,
भौतिक विकास-निरंतर, कहाँ नैतिक चिंतन का सेतु?
अब नहीं सौहार्द, श्रेयस् युक्त तुम्हारे पुत्रों का व्यवहार,
मात्र त्रासदी-मूल्यों की, मेरा नित्य घोर- तिरस्कार।
भार उपेक्षा का, अति विषाद इस युग में मेरे मन पर है,
क्या तुम निवारण कर पाओगे जो दुःख इस जीवन पर है?
जान मानवता के विषाद का कारण मनु तनिक मुस्काए,
क्या तुम यह न समझ पायी युग-परिवर्तन होते आए।
संक्रमण का युग है यह नहीं रहेगा अधिक अवधि तक,
करेगी प्रकृति संतुलन मेरे पुत्रों का सृष्टि परिधि तक।
होगा नवीन युग का आगमन वही होगा सुखदायी,
धरणी पर पाप है अधिक पर नहीं यह चिरस्थायी।
पुनः मूल्यों का प्रतिस्थापन होगा उन्मूलन संक्रमण का,
आओ हम-तुम पथ निहारें मानव के नव-सृजन का।