मानवीकरण / वीरेन डंगवाल
चीं चीं चूं चूं चींख चिरौटे ने की मां की आफत
‘तीन दिनों से खिला रही है तू फूलों की लुगदी
उससे पहले लाई जो भंवरा कितना कड़वा था
आज मुझे लाकर देना तू पांच चींटियां लाल
वरना मैं खुद निकल पडूंगा तब तू बैठी रोना
जैसी तब रोई थी जब भैया को उठा ले गई थी चील
याद है बाद में उसकी खुशी भरी टिटकारी ?’
मां बोली, ‘जिद मत कर बेटा, यहां धरी हैं चीटी लाल ?
जाना पड़ता उन्हें ढूंढने खलिहानों के पास
या बूरे की आढ़त पर
इस गर्मी के मौसम में
मेरा बायां पंख दुख रहा काफी चार दिनों से
ज्यादा उड़ मैं न पाऊंगी
पंखुडियां तो मिल जाती हैं चड्ढा के बंगले में
बड़ा फूल-प्रेमी है, वैसे है पक्का बदमाश
तभी रात भर उसके घर हल्ला-गुल्ला रहता है
उसके लड़के ने गुलेल से उस दिन मुझको मारा
अब तो वो ले आया है छर्रे वाली बन्दूक
बच्चे मानुष के होते क्यों जाने इतने क्रूर
उन्हें देख कर ही मेरी तो हवा सण्ट होती है
इनसे तो अच्छे होते हैं बेटा बन्दर-भालू
जरा बहुत झपटा-झपटा ही तो करते हैं’