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मानवी-व्यापार / महेन्द्र भटनागर

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मानवी-व्यापार कितनी दूर !

दूर जन-जन से सहज उमड़ा हुआ मधु प्यार,
दूर जन-जन से सरल, सुख, शांति का संसार,
हो रहा है पीड़ितों का आत्म-गौरव चूर !

चाहता मानव कि भर लूँ स्वर्ण-निधि से कोष,
कर रहा अभियान निर्भय, है नहीं संतोष,
दानवी-बल नाश-हिंसा-भावना भरपूर !

नाज़ियों-सा क़ाफिला बन कर रहा प्रस्थान,
सत्य-शिव-सुंदर जलाने, सर्वनाशक गान,
देखते बरबाद करने के घृणित ग्रह घूर !

आततायी शक्ति का सूरज कहाँ है अस्त ?
आज ज्वाला-ग्रस्त दुर्बल वर्ग जग का त्रास्त,
आज तो पथ-भ्रष्ट मानव हिंस्र ख़ूनी क्रूर!