(राग भैरवी-ताल कहरवा)
मानव आज बन गया दानव, राक्षस, निर्दय प्रेत, पिशाच।
बन हत्यारा क्रूर, कर रहा नृशंसताका नंगा नाच॥
मानव, पशु-पक्षी, तिर्यक् सब, कीट-पतंग हो रहे भीत।
घातक बन, निर्लज्ज गा रहा वह दुर्वा शान्तिके गीत॥
नित नव नाशक शस्त्र बनाता, नित नव रचता नाश-विधान।
इसी जघन्य कर्ममें उसका व्यय हो रहा ज्ञान-विज्ञान॥
इसी आसुरी वृत्ति-जनित तमसे आच्छादित उसके काम-
होते सभी वैर-हिंसाके वर्धक, दुःख-शोकके धाम॥
जीवनभर अनन्त चिन्ता-अशान्ति-दुःखोंमें वह रह चूर।
मरकर भीषण नरक-यन्त्रणा-भोग करेगा वह भरपूर॥
प्राणी सकल उसे नोचेंगे, खायेंगे, देंगे अति कष्ट ।
हो जायेगी दुःख-यातना मिटनेकी सब आशा नष्ट ॥
दुःखमयी आसुरी योनियाँ उसे मिलेंगी बारंबार।
कोई बश न चलेगा, कोई नहीं सुनेगा आर्त-पुकार॥
मानव बन होगा दरिद्र, रोगी, अपमानित, अंग-विहीन।
दुःख-ताप-संतप्त रहेगा नित कराहता, होकर दीन॥
इन सब बातोंपर विचार कर, हिंसा छोड़ बढ़ाओ प्रेम।
किसी जीवको दुःख न देकर, करो सभीका योग-क्षेम॥
सबमें देख नित्य ईश्वरको, सबका सदा करो समान।
यथाशक्ति हित करो सभीका, विनय-युक्त दो सुखका दान॥