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मानव फिर गढ़ेगा खुद को / हेमा पाण्डेय
Kavita Kosh से
इन्सान का अपना
प्रिय संगीत टूट रहा है।
वह अलग हो रहा है,
अपने लोगो और प्रकृति से।
खो रहा है निजी एकांत,
रात का खामोश अँधेरा भी।
कहाँ है वह जीवन
जिसे हमने खो दिया।
जीवन जीने में ही
जीवन को पाना है।
अपनी पूरी ताकत
अमेध जिजीविषा।
ज़िंदा है अथाह
गरीमा के साथ।
ऐसे चौराहे पर है खड़ा
आज का इन्सान।
उसके आगे का रास्ता
गुजरता है अंधेरी सुरंग से।
एक तरफ नई सभ्यता
ले रही अगडाइयाँ
दुसरी तरफ खून देने
वाले इन्सान भी।
टेक्नोलॉजी ने पाट दी
भौगोलिक दूरियाँ भी।
वही इंसानो के बीच
पैदा करदी है अथाह दूरियाँ।
चुनोतियाँ ज्यादा
समाधान कम।
एक इन्सान दूसरे के
सर पर पैर रखकर
निकल जाना चाहता।
आपाधापी में उसका
छुट्ता जा रहा है
सहज स्वाभाव॥