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मानव से कुछ ही ऊँचे / अज्ञेय

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मानव से कुछ ही ऊँचे, पर देव के समीप!
प्रियतम, प्राण, जीवन-दीप!

पार्थिव सुख-दुख ओछे बन्धन, कभी देख निर्बलता का क्षण,
घोट डालते क्रूर करों से उर में छिपा हुआ भी स्पन्दन!

कब की भूली, आज जगी हूँ, पुन: खोजने तुझे लगी हूँ,
इतने नीरस दिन बीते पर अब भी तेरे प्रेम पगी हूँ।
तुझ से प्लावित मेरा स्तर-स्तर फिर भी क्षण-भर तुझे अलग कर,
क्षमा माँग विनती करती हूँ-प्रेम यदपि है सदा अनश्वर,

उसे भूमि से ऊँचा रखना, दिव्य के समीप!
प्रियतम, प्राण, जीवन-दीप!

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