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मानव / मेघदुन्दुभि / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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क्या है जग का आरम्भण, क्या है अधिष्ठान?
क्या है उसकी अन्तिम परिणिति, क्या है विधान?
यह जग क्यों है, कैसे, किससे; है गिरा मौन!
है कौन जानता, कह सकता, कह सका कौन?

वह कौन महावन है ऐसा सीमाविहीन?
उसमें है ऐसा कौन महाद्रुम पुरानीच?
है खड़ा हुआ जिससे बन भूमण्डल अखण्ड?
‘आ समन्तात भवतीति’ सृष्टि का मेरुदण्ड!

यह साधारण-सा प्रश्न बना शिव का पिनाक!
कर रहा निखिल जग को भय से विजड़ित अवाक!
चेतना-केन्द्र यह सृष्टि चिरन्तन स्वयंसिद्ध,
है स्वतः प्रयोजनवती अर्थमूलक प्रसिद्ध!

है जीवन होता स्वयंपल्लवित, मुकुलवान,
कुसुमित, पंुकेसरयुक्त और म´्जरितप्राण।
बनकर मिट जाना जीवन का है सहज भाव,
है सृजन प्रकृति का नियम, संहनन गुण-स्वभाव।

परिच्छिन्न तिमिर से मृत्यु-शृंखला के विरुद्ध,
है ज्योति-तरंगित जीवन एक अखण्ड युद्ध।
है मृत्यु न जीवन के विकास-क्रम का विराम,
अथ है जीवन का मृत्यु, न इति है शेष नाम।

वह अन्तरिक्ष में दहनशील द्रव का उबाल,
घन द्रवीभूत, कुण्डलाकार नीहार ज्वाल।
वह अग्निपु´्ज उल्कापिण्डों का ध्वंस कृत्य,
शंखानुशंख नक्षत्रों का आवर्त्त-नृत्य।

उस घनीभूत केन्द्रीय पिण्ड से निराधार,
हो गई टूट कर पृथक धरा वर्तुलाकार।
तब हुआ प्रकृति का उस पर ताण्डव दुर्निवार,
जाग्रत ज्वालामुखियों का ध्वंसात्मक प्रहार।

छा गया दिवा में ही निशि का निबिड़ान्धकार,
बरसा अम्बर से नील नीरधर धुआँधार।
कितना था विस्मयप्रद वह क्षण तर्कगणतीत?
जो है न शब्दतः व्य´्जित, है व्य´्जनातीत।

शत लक्ष-लक्ष वर्षों में भू का पिण्ड तप्त,
शीतल सुधांशु-सा हुआ कलामय, प्राणवन्त।
धारण कर घनकृष्णाजिन भूधर शृंगवान,
निकले अतलान्त उदधि से छूने आसमान।

हो उठा गुरुत्वाकर्षण से अणु-अणु अधीर,
दी जगा प्रकृति ने बिन्दु-बिन्दु में सृजन-पीर।
जल-थल में वंशी बजी, बहा सुर का समीर,
बाँधा सुन्दर ने अन्तरिक्ष में स्वर्णनीड़।

उमड़ा दाक्षिण्यमयी पृथिवी का मृदु उरोज,
खुल पड़ा क्षीर का सिन्धु, खिला जीवन-सरोज।
तन गया धनुष फूलों का बन मादन कटाक्ष,
छूटे रंगों के बाण, खुला छवि का गवाक्ष।

आए ले अरुण पराग, रूप, रस, गन्ध वर्ण,
वन्दित मिलिन्द से गुल्म-लता-द्रुम हरितपर्ण।
आए जड़-जंगम, कृमि-उरंग, दीमक-पतंग,
गैंडे़, बारहसिंगे, तुरंग, मैमथ मतंग।

नत हुए समर्पण के भंगों में दिग्दिगन्त,
उदयाचल से अस्ताचल तक अम्बर अनन्त।
ऋतु की थाली से मधु, कंुकुम, कर्पूर-चूर्ण,
चू पड़े कनकचम्पा, गुलाब के नव प्रसून।

दक्षिण कर में पौरुष का मंगल शंख-चक्र,
लेकर नीरज-निभ वाम पाणि में विजय-पत्र।
क्रमशः नव छन्दमयी संस्कृति का समारम्भ।

अभिषिक्त उसे करने आए ले अमृत-कलश,
दिग्गजगण दिशा-दिशा से होकर विनत, विवश।
दीं वसुन्धरा ने ओषधियाँ रस-सारयुक्त,
गोमाताओं ने प´्चगव्य दूषणविमुक्त!

कर दिए उपस्थित कुसुम-गुच्छ, मलयज चन्दन,
क्षण-भर में ऋतुपति ने सुरतरु-म´्जर नूतन।
भर कर सुवर्ण-घट नदियों ने हो मूर्त्तिमान,
अभिषेक हेतु ला दिया सलिल मधु के समान।

बादल अम्बर में लगे बजाने बार-बार,
गोमुख, मृदंग, मंजीर, पणक, वीणा, सितार।
कलनाद लगे करने प्रमत्त पिक-वृन्द मुदित,
प्रिय नृतय चित्रपत्रक किरीट-चन्द्रक मण्डित।

जिस दिन तम-अवगुंठित दिगन्त में निराधार,
छिटका था अरुण प्रकाश उषा का प्रथम बार।
उस दिन देखा मानव ने जिसको भासमान,
वह दिव्य स्वस्तिप्रद ज्ञान-चक्षु था ज्योतिमान।

जिसने उसको सर्वात्मभाव से लिया जान,
वह विभा-लोक में हुआ प्रतिष्ठित अग्रमान।
जो रहा विमुख उसके प्रकाश से निरावरण,
पड़ गया निगूढ़ तिमिर का उस पर जड़ावरण।

क्या नहीं आज भी ज्योति-चक्षु वह भ्राजमान,
होकर नभ के अन्तर्प्रांगण में दृश्यमान।
उस विषय-सत्य की ओर तत्व पर अवलम्बित,
करता रहता प्रतिदिन मानव को अनुप्रेरित?

पर, कब उसकी प्रज्ञान-रूप किरणें विशिष्ट,
हो सकीं विश्व-मानव के अन्तर में प्रविष्ट?
कब वह वस्तुतः रहा अपने प्रति सावधान?
कब अपने मूल रूप का उसको हुआ भान?

पहचान लिया उसने अनन्त में अन्तर्हित,
शत कोटि-कोटि नक्षत्रों को मणि-रत्नजटित।
पर, कर न सका वह अपना ही प्रकाश-दर्शन,
निज अन्तर के अंगार-सुमन का गन्ध-ग्रहण।

जिसकी मति में विर´्चि, स्वर में सम्पूर्ण वेद,
छाया में ध्वंसक मृत्यु, भृकुटि में विधि-निषेध।
वह मानव क्यों अपनी विभूति से है व´्चित,
अपने ज्योतिर्मय केन्द्र-बिन्दू से संगरहित?

कर दिए सभ्यता ने निर्मित पुर, दुर्ग रम्य,
क´्चनजंघा के शिखर-सदृश प्रासद, हर्म्य!
पर, उनमें विद्यमान मानव को तिमिरग्रस्त,
वह बना न सकी मनोज्ञ, दान्त, संस्कृत, उन्नत!

अनुभव से जान लिया मानव ने महाप्राण,
उड़ना सुपर्ण-सा ऊर्ध्वशून्य में शब्दमान।
निर्द्वन्द्व मछलियों के समान स्वेच्छानुसार,
अतलान्त सिन्धु की लहरों पर करना विहार।
पर, रहना भूमण्डल पर मानव के समान,
वह नहीं आज तक तर्क-बुद्धि से सका जान।

भौतिक मद के मणिधर भुजंग ने महत, प्रबल,
अपनी अंगारदीप्त आँखों से गरल उगल।

है जकड़ लिया जबड़ों के बन्धन मंे दृढ़तर,
मानव-समाज के कुसुम-कलेवर को सुन्दर।

जीवन के साथ सत्य का मौलिक समीकरण,
कर सकता है क्या वर्तमान भौतिक दर्शन?
सर्वांगपूर्ण मानव क्या होगा भू-लुण्ठित,
जड़वादी मानव के द्वारा होकर विजड़ित?

स्वर्णिम प्रभात की प्रथम लालिमा को विम्बित,
कर सकती है क्या बहिर्नयन विद्युत व्य´्जित?
क्या गन्धवान पाटल-प्रसून से भी सुरम्य,
करता है हर्ष-प्रदान अधिक दामी हिरण्य?

तज एकांगी भौतिक प्रभुता के तर्क भ्रान्त,
कर सकता है वह उस विभूति को पुनः प्राप्त।
है जड़ समृद्धि ने जिसको उससे लिया छीन,
व´्चित जिससे रह कर है वह पुंसत्वहीन!

नर की ऊर्जित चेतना-शक्ति में भुवनव्याप्त,
हैं दिवा-रात्रि, गोधूलि और सन्ध्या, प्रभात।
मानस में उसके अमरपुरी का गणितशास्त्र,
वह विश्वविदित वर पुत्र दिवस का एकमात्र!

है भरी हुई शृंखला सृष्टियों की अनन्त,
उसके असंख्य अन्तर्भावों में मूर्त्तिमन्त।
वाणी में उसकी वाणी की वीणा झंकृत,
छू दिया षडज को प´्चम ने होकर मुखरित।

हो चिन्तन करने की स्वतन्त्रता जन्मजात,
मानव को अपने भावों के अनुकूल प्राप्त।
है इसीलिए तो हुई मनुज की दिव्य सृष्टि,
वह भू-प्रांगण में ज्योति-अमृत की करे वृष्टि।

विधि की महिमा का है जितना जग में बखान,
उसकी उस महिमा से भी है मानव महान।

हो सका न बन कर पूर्ण किन्तु, नर ऋद्धिमान,
गतिशील अभी तक है विकास का प्रगति-यान।
प्रस्तर-युग के रूपों का ही अवशिष्ट अंश,
है केन्द्र-पुरुष मानव के अन्तर में प्रच्छन्न।

हैं एक ओर चिन्ता, विबोध, विद्या, विचार,
धृति, सत्य, धर्म, निर्वेद, नीति, मति-चमत्कार।
इसके नीचे हैं बुद्धिजाड्य, भ्रम दुर्निवार,
विग्रह-विरोध, छल, छह्म, व´्यना, अहंकार।

जब ज्योतिर्मयी यवनिका सोने के सामन,
ढक लेती अन्तर्निहित सत्य को भासमान।
तब एक व्यक्ति या राष्ट्र शस्त्र से हो सज्जित,
करता भू को पद-दलित स्वार्थ-साधन के हित।

पाशवता जब मानवता को करती कुण्ठित,
या मानवता से मानव जब होता व´्चित।
हो जाता तब वह वनचारी तेन्दुआ क्रूर,
बर्बर, अभद्र, शठ, धूर्त्त, क्षुद्र, गतिविमुख मूढ़।

करता प्रप´्च से नर दुर्लभ ऐश्वर्य प्राप्त;
पर हो जाती इससे क्या उसकी क्षुधा शान्त?
भौतिक समृद्धि के मानदण्ड पर अवलम्बित,
सभ्यता-सर्पिणी का है सर्वनाश निश्चित।

हैं वर्त्तमान के विजयघोष के ही निमित्त,
चेतन जग के बर्बर, असभ्य जड़वत जीवित।
लेकिन भविष्य औ’ वर्त्तमान दोनों के हित,
हैं शिष्ट, सभ्य, जाग्रत, प्रबुद्ध मानव संस्कृत।

अभिमान-मेरु नर के हाथों में प्रगतिमान,
बन सकती थी जो शक्ति सृजन का साम-गान।
बन गई वही उसके हाथों में रण-कृपाण,
घिर अहंवाद की सीमा से क्षमता-प्रधान।

जो शक्ति प्रकृति की बनकर जीवन की हिलोर,
ला सकती थी नक्षत्र-लोक के कुसुम तोड़।
कर रही वही मानव-आत्मा को जड़ीभूत,
उन्मत्त यन्त्र-रूपी दानव के वशीभूत।

पृथिवी की कम्पन-ध्वनियांे का होना अनुभव,
जिसकी विकसित चेतना-शक्ति-द्वारा सम्भव।
जिसके अर्न्तमन के दर्पण पर अर्थसहित,
युग-युग के संकेतों के रंग-चित्र अंकित।

उत्पन्न गगन के विवर-रन्ध्र में ध्वनि अभंग,
उत्पन्न पवन के भँवर-चक्र में ध्वनि-तरंग!
जिसके मानस के श्रवण-तन्तुओं के ऊपर,
छवि के रंगों का विम्ब बनाती सरल, सुधर।

सुन सका न क्यांे वह मानव निज ध्वनि का निनाद?
क्यों ले न सका उस ध्वनि के रस का दिव्य स्वाद?
क्षण-क्षण जो टकराती बन-बन कर लहर-ज्वार,
उसके अन्तर के गुफा-द्वार पर बार-बार!

वह जीवित है, पर उसमें उसका ध्वनित व्यंग
उसमें उसके अभिधेय अर्थ के अंग-भंग।
वह जीवित है, पर उसमें उसके नहीं चिह्न,
उसमें उसके स्वर से व्य´्जन सर्वथा भिन्न।

कम नहीं अमर्त्यलोक में विद्याधर, किन्नर,
वसु, सिद्ध, यज्ञ, गन्धर्व, मरुद्गण और अमर।
करने को चिदानन्दघन हरि का पद-वन्दन,
विधिबद्ध से लेकर अगर-तगर-चन्दन।

पर-दुख पर अपने को ही कर देने अर्पित,
अवतीर्ण हुआ मानव भूमण्डल पर मण्डित।
इस गुण के ही कारण उसके पद पर कुसुमित,
देवों ने झुका दिए थे मस्तक अभिनन्दित।

मानव-सुर, मानव-असुर और मानव-ईश्वर,
मानव के विविध अनेक रूप लोचनगोचर।
पर निज कर्त्तव्य धर्म में ही रह कर निष्ठित,
हो सकता मानव मानव के गुण से भूषित।

है यही सृष्टि-रचना का सरल आत्म-दर्शन,
मानव से रहे न असम्बद्ध मानव चेतन।
कैसे न गहन अर्णव का एक क्षुद्र जलकण,
कर सकता अन्य बिन्दु के गुण या दोष ग्रहण?

सब ओर चतुर्दिक भुवन-भुवन में इधर-उधर,
ऊपर-नीचे, पूरब-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर।
चर और अचर में एक सदृश है ओत-प्रोत,
ऋत के अव्यक्त तन्तु का एक अखण्ड स्रोत।

वनमानुष से मानव ने उपमानव समान,
उपमानव से बनकर मानव-सम बुद्धिमान।
आक्रान्त किया दिग्देशकाल को परिधिहीन,
दी शक्ति सृजन की त्रिभुवन को तम में विलीन।

है आज न वह दुर्जेय प्रकृति का दीन दास,
है नहीं आज वह अन्ध नियति का क्षुद्र ग्रास।
केन्द्रित उसमें आसिन्धु क्षितिज, दश दिक, खगोल,
सबसे ऊपर होकर उसका सुर रहा बोल।

रह गया न गूढ़ प्रच्छन्न देश-सीमान्त-भेद,
बन गई सिकुड़ कर धरा मनुज के लिए गेन्द।
अनुचर उसके जल, अग्नि, पवन, घन-वाष्प-अंग,
अणु-महत, वृहत-लघु, ध्वनिमूलक कम्पन-तरंग।

चल पड़ा आज भू-मानव का रथ छन्दयुक्त,
जीवन-प्रभात के सिंहद्वार की ओर मुक्त।
कर सके न मरु-पर्वत-वन उसका मार्ग-रोध,
छू भी न सके उसको बाधा-बन्धन-विरोध।

हे शालप्रांशु मानव, तुम महतोमहीयान,
हैं वर्तमान तुममें अतीत, भावी, महान।
संदीप्त अमृत से है तेरा प्रिय उपाख्यान,
तन से क्षयिष्णु, पर मन से हो तुम अमरप्राण।

देखा तुमने ऊपर नीला अम्बर-वितान,
नीचे अम्बुधिवसना पृथिवी सुमनस्यमान।
देखे तुमने दुर्गम अरण्य, हिम के पहाड़,
चट्टानखण्ड, कन्दरापिण्ड, निर्जन पठार।

देखीं जलधाराएँ, हिमानियाँ, प्रगतिमान,
शतधा विद्रावण कर हिमाद्रि को प्रवहमान।
सतरंगे इन्द्रधनुष देखे जैसे कृशान,
देखीं तुमने उल्काझाड़ियाँ जा´्वल्यमान।

संत्रस्त हो गए देख प्रकृति का अनन्तत्व,
तुम भूल गए आने विकास-क्रम का महत्व।
हो गए चकित, दिग्भ्रमित और विस्मयविमुग्ध,
रह गए देखते तुम अनन्त को मन्त्रमुग्ध।

बज उठा तुम्हारे अन्तर का सुर मौन मन्द्र,
घन में जैसे बजता विद्युत का वाद्य-यन्त्र।
फूटीं अनेकधा चिन्तन की बेलें स्वतन्त्र,
बनकर प्रशस्ति, ध्वनि, छन्द, वर्ण, स्वर, आर्ष-मन्त्र।

फैले तुमसे ऋक, यजुर्साम के त्रिविध चक्र,
मुखरित जिनमें युग के विकास के प्रगति-मन्त्र।
अव्यक्त तुम्हारे आदि-अन्त का अधिष्ठान,
सुर हुए तुम्हारे बाद सृष्टि में दृश्यमान।

ईश्वर को तुमने मान लिया कर्त्ता प्रधान,
अयथार्थ शून्य को बावदूक लक्ष्यार्थ ज्ञान।
आहूत हुए अप्सरा, उषा, यम, वरुण, इन्द्र,
पूषण, अश्विनीकुमार, विष्णु, पर्जन्य, रुद्र।

लाक्षणिक प्रयोगों से अमूर्त्त हो मूर्त्तिमान,
युग-युग तक करता रहा भ्रान्ति-जड़ता प्रदान।
बन जाए भले ही युग का गण अध्यात्मगान,
ले सकता उसके सिंहासन का नहीं स्थान।

है टिका तुम्हारे आदर्शों का पृथु विधान,
नैतिक जड़त्व पर, नहीं सत्य पर दीप्तिमान।
देवत्व, ज्योतिरसि ईश्वरत्व का गरल दन्त,
पी रहा तुम्हारा मर्म चीर कर गरम रक्त।

चिरपरम्परागत धर्म-नीति का जड़ कबन्ध,
जीवन-संवत्सर की प्रतिमा जिसमें निबद्ध।
जिसकी कुण्डलित शृंखला में सर्पिल विषाक्त,
पशुता, जघन्यता और दासता दुराक्रान्त।

तुम देख रहे कल्पना-क्षितिज के आर-पार,
इन्द्रियातीत आलोक-रश्मि को निर्विकार।
पर, देखा तुमने नहीं नरक का खुला द्वार,
सिर पटक रहा जिसमें दुख का सागर अपार।

हे आसमुद्र विस्तीर्ण धरा के एकराट,
तन से वामन, पर अन्तर्मन से विराट।
मत कुम्भकर्ण-सा वरो तिमिर को मरणशील,
लक्ष्मण-सा ज्योतिर्स्नात बनो जागरणशील।

मणिका´्चन सप्त अश्वरथ पर आरूढ सूर्य,
सारथि है जिसका अरुण-प्राण से दीप्त ऊर्ज।
जो सहस्रांशु, भूयसीज्योति, अंगारचूड़
है अभी क्षितिज से बहुत दूर, है बहुत दूर।

ऐ नववसन्त के पुष्प, प्रकृति के राग दिव्य,
गढ़ते तुम संकल्पों से ही अपना भविष्य।
सम्पूर्ण प्रकृति कर रही तुम्हारा अभिनन्दन,
पीते तुम भुवनकोश का गन्धपेय मादन।

तुम निखिल सत्य के महायाम से एकस्रूप,
तुम युग के आदि, मध्य, युग के सर्वांगरूप।
सुनहली तुम्हारी किरणों में आलोकवान,
मुस्करा रहा दिग्मण्डल फूलों के समान।

तुम सृष्टि-प्रणव, कालाग्निरूप से अति कराल,
अबाध्य तुम्हारे आलिंगन में देश-काल।
आत्मा के अनन्तत्व को भर अपने भीतर,
छूते तुम स्वर्ग-शिखर को भी उठकर ऊपर।

तुम नहीं सान्त, परिच्छिन्न में ही केन्द्रित,
सम्पूर्ण काल में परिव्याप्त तुम प्रथम ध्वनित।
आनन्दरूप बन निकल रहे तुमसे प्रकाश,
जैसे अंकुर से पत्र-पत्र से कुसुम-हास।

सुनता समीर में अमर तुम्हारा सामगान,
तुम अपना परम निदान-नियम अपना विधान।
तुम दूर दूर से, निकट निकट से विद्यमान,
निर्धूम हुताशन के समान तुम दीप्तिमान।

कुसुमावकीर्णवन, गुल्म गहन, नगपति महान,
अम्बर के अलंकार तारागण विभावान।
सब एक अनन्त महासागर के गुणाख्यान,
करते न कभी अनुकूल या कि प्रतिकूल भान।

करते शत तुम्हें प्रणाम नाग, गन्धर्व, अमर,
आदित्य, साध्यगण, प्रमथ, रुद्र, वसु, विद्याधर।
हो मूर्त्तिमान ग्रह-अन्तरिक्ष युग, संवत्सर,
ऋतु, लव, निमेष, क्षण, याम, पक्ष, चर और अचर।

ऐ अमर पुरुष, तुम विश्ववेद, विज्ञानवान,
तुममें ही देवपùिनी गंगा, स्यन्दमान।
सोती तुममें ही रात और होता बिहान,
तारों के दीप जलाता तुममें आसमान।

खिलते प्रसून तुममें ही गन्धपरागपूर्ण
हैं साथ तुम्हारे नदियाँ वृक्षवितानपूर्ण।
उड़ते तुम पर गैरिक नीलांगकान्ति बादल,
तुममें विद्युत्कुण्डलमण्डित ज्वाला मण्डल।

भरता तुममें ही वैनतेय लम्बी उड़ान
अम्बरवितान को धुन पंखों से वेगवान।
आते तुमसे उन ज्वालामुख्यिों में उबाल,
धधकते जिनके महागर्त्त अंगारज्वाल।

है खड़ा तुम्हारे दाएँ दिनमणि रश्मिमान,
बाएँ राकाराशि का अनन्त ज्योत्स्नावितान।
हँसता तुममें ही इन्द्र धनुष मननयनहरण,
बहता तुमसे सुगन्ध ले मलयपवन मादन।

तुमसे अभिन्न गिरिऊर्ध्वशंग रुचिरागंवर्ण
कलमन्द्रमुखर निर्मल निर्झर, द्रुमहरितपर्ण।
सिन्दूरारूण उद्यान रम्य, दुर्गम अरण्य,
गम्भीर घोष निस्तल अशान्त अर्णव अगम्य।

क्रन्दन करता जग का जीवन बन क्रौ´्चद्वन्द्व,
श्लोकत्व शोक को दो नव पुष्पित मुखर छन्द।
कोटानुकोटि जन तमश्चक्षु, दिग्मूढ़, भ्रान्त,
दो हिरणनयन उनको आलोकन स्वर्णकान्त।

तुम बनो राष्ट्र का ककुद, प्रजागर, प्रभावान,
दो भू-उपवन को नव वसन्त का फूलदान।
अंगारों पर चलनेवाले हे कारबान,
है गहन तिमिर, दो धूमकेतू का दीपदान।

दो जनवाणी को नूतन चिन्ता, धृति, विषाद,
दो नूतन वस्तुध्वनन, नूतन व्य´्जना, नाद।
नूतन दो भणितिभंगि, उद्दीपन, अलंकार,
युग की वाणी को नूतन आलम्बन, विचार।

तुम जिओ कि जैसे जीते सूरज और चाँद,
जैसे जीते हैं फूल लुटा कर गन्ध, ‘ह्लाद।
मधुमय हो तेरी रात और मधुमय बिहान,
मधुमय हो सन्ध्यारागोत्थित दिवसावसान।

मानव, तेरा मानव से साप्तपदीन सख्य,
शत सम्वत्सर तक बना रहे ध्रुवबिन्दु सत्य।
हो सौमनस्यता निखिल भुवन का पथ प्रशस्त,
नव प्रीति-किरण से भरें भूमि, अम्बर, दिगन्त।

(‘विशालभारत’, जनवरी 1951, ‘नया समाज’, अप्रैल, 1951, ‘नया समाज’, अगस्त, 1956 और ‘आजकल’, अप्रैल 1957)