मानसरोवर / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
(नैसर्गिक सौन्दर्य की दृष्टि से सिवट्जरलैण्ड की आल्प्स पर्वतस्थित ‘जेनेवा’, साइबेरिया की ‘बैकाल’, अफ्रीका की टैंग्यानिका, अमेरिका की क्रेटर, इक्वेडर की तीतीकाका और भारत में कुमाऊँ की भीमताल और कश्मीर की डल, वूलर आदि प्रसिद्ध झीलों में मानसरोवर सबसे अधिक अपूर्व, मनोहर और आत्मविस्मरणकारी है। यह संसार का एक आश्चर्य है, जिसको अवलोकन कर जो अद्भुत देखना है, दर्शक उसको देख लेते हैं। तिब्बती कैलास-पुराण में मानसरोवर-‘सरोवर माता की गोद’ के नाम से विख्यात है। मानसरोवर 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ भी है। शीतकाल में मानसरोवर के दधिसमुद्र की भाँति जमने और वसन्त ऋतु मर्मविदारक ध्वनियों के साथ द्रवीभूत होने की जानकारी प्राप्त करने में स्वामी प्रणवानन्दकृत ‘कैलास-मानसरोवर’ नामक यात्रा-ग्रन्थ से मुझे प्रेरणा मिली।-ले.
दिव्यलोक के अन्तरंग-सा निर्मल मानसरोवर,
रजतशंखप्रभ, ज्योतिधवल निज वक्षस्थल के ऊपर-
करता उस कैलास-शिखर के परिसर को प्रतिविम्बित,
वसुधा की अन्तर्वेदी में चक्रदण्ड-सा जो स्थित।
सुर-किन्नर, गन्धर्व के लिए जो सुरम्य क्रीडा-स्थल,
कर देता जो प्रियदर्शन से च´्चल मन को निश्चल।
लिंगरूप तोरण पर जिसके रजत त्रिपुण्ड्र विलेपित,
ऊर्ध्वपुण्ड्र दक्षिण तल पर पुच्छलतारा-सा ज्योतित।
किसके आकर्षण-रहस्य का यह विराट उद्घाटन,
करता विस्मयमुग्ध मौन मुद्रा में जग को प्रतिक्षण?
चित्रलिखित, षोडशदल शतदल-सम शिखरों से शोभन,
महाव्योम के अन्तराल का करता बन्ध-विभेदन।
प्रकट हुए गहरे अर्णव में अचल, अचल में अर्णव,
भूतल में जल, जल में भूतल, जल-थल में नभतल जब-
मनोनयननन्दक कैलाससहित मानस पावनतम,
निकल पड़ा तब महासिन्धु के उदर-विवर से दुर्गम।
सर्वप्रथम विख्यात कीर्त्तिमत भुवनकोश में व्यापक,
परमाश्चर्यरूप, सुषमामय, मधुमय, पृथुफलदायक।
लक्ष-लक्ष वर्षों से, शत-शत शताब्दियों से अब तक,
वैसा ही यह मानसरोवर आन्दोलक, आल्लादक।
पवन-भँवर से आन्दोलित वारिधि के उद्वेलन-सा,
कामधेनु के क्षीरफेन के नूतन अभिव्य´्जन-सा।
अमृत-ज्योति में मृत्यु-तिमिर के अद्भुत परिवर्त्तन-सा,
शब्द-स्पर्श-रस-रूप-वर्ण के भौतिक समीकरण-सा।
दक्षिण, उत्तर, पश्चिम की दिक्सीमाओं में विस्तृत,
मान्धाता, कैलास और रावणह्रद से परिवेष्टित।
कन्दमूल तृणलतागुल्म किसलय-दल से उत्कण्ठित,
बहुसंख्यक पर्वत-शिखरों से पूर्वदिशा में प्रहसित।
करने लगता मानसरोवर जब नूतन पट धारण,
तब बसन्त ऋतु में उसमें होता भीषण आन्दोलन।
फटने लगता उसका श्वेत शिशिर-अवगुण्ठन जर्जर,
वक्र दरारों , भीम शिलाखण्डों में परिणत होकर।
कभी सुनाई देता अति दारुण निर्घोष भयानक,
रुद्ररूप न्याग्राप्रपात की ध्वनि से भी विस्मापक।
कभी ध्वनित होते दुर्दर दुन्दुभि, मृदंग, मर्दल, घन,
तुम्बवीण, डमरू, सरोद, बेला, सितार उन्मादन।
विविध व्य´्जनमामय स्वर जिनसे होते मुखरित सन्तत,
ऋषभ, निषाद, षडज, मध्यम, गान्धार, सुपंचम, धैवत।
प्रकृति-नटी की स्वरलहरी का यह संगीत विलक्षण,
खींच रहा मन को निज मोहन वशीकरण से क्षण-क्षण।
सुनती जिसे हवा भी रुक कर, सुख की सिहरन से भर;
झूम रहे नीचे धरणीधर, ऊपर नभ में जलधर।
हो वसन्तगुणसंयुत मन्द गन्धवह मदसन्दीपन,
अथवा शिशिर-शर्वरी का हो हिमनिपात अति भीषण।
हो प्रचण्ड उष्णागम या नीलाम्बर से मधुवर्षण,
रुकता पर न प्रकृति का श्रुतिसम्मोहन वीणावादन।
जब मदघूर्णित-सा प्रणवनाद करता तब मानसरोवर।
कभी झुलाता ताराओं को ऊर्मिदामदोला पर,
नक्षत्रों के लिए कभी बन जाता दर्पण सुन्दर।
कभी तोड़ कर मीनों के पंखों को भूरे, पीलेे,
तट पर पहुँचाता लहरों के तीरों से चमकीले।
कभी बना कर अम्बरमणि के अंशुलेख को भास्वर,
विस्मय, कौतुक, चमत्कार से लुब्ध-मुग्ध देता कर।
कर देता उत्कीर्ण शुभ्र अंशुकवितान पर निर्मल,
कभी नहीं ङरसिरचुङ के शिशुओं को धूसर, पिंगल।
क्रीड़ा करता कभी चढ़ाकर जल-तरंग पर चंचल,
पùराग-से चरण-चुंचवाले हंसों को उज्ज्वल।
कहीं दिखाई देते उस पर कादम्बों के मण्डल,
लचकदार दुम को ताने, ग्रीवा को मोड़े कोमल।
लहर-नर्तकी पहन बेल-बूटों के ग्रीवा-लम्बन,
लतिकाओं के अन्तरीय, उपलों के झंकृत पाजन।
लाल मौसमी बतखों, राजमरालों को शोभनतम,
सिखलाती सुकुमार लास्य, लीला विलास, मद-विभ्रम।
कभी छिपा देता कैलास-शिखर को गगनविचुम्बित,
अरुणोदय में श्याम-नील वारिद-खण्डों से अगणित।
कभी प्रतीची के गवाक्ष को लपटों से देता भर,
मान्धाता के कनकचूड़ पर रंग-विम्ब बरसा कर।
उषःकाल में कर देता निज स्वर्णाम्बर से दीपित,
मान्धाता-कैलास-पंक्ति के पटमण्डप को मण्डित।
कभी पार्श्ववर्त्ती शैलों की उपत्यका को प्रहसित,
सिन्दूरी सन्ध्यावेला में अग्निपिण्ड-सा लोहित।
छायी रहती कभी शान्ति, मृदुता, नीरवता दिन-भर,
चलने लगता कभी निरंकुश झंझावत भयंकर।
कभी बजाने लगते बादल फटे नगाड़े; झर-झर-
होने लगती वृष्टि, स्फुलिंगित तड़ित कड़कती तड़-तड़।
पुरुष प्रभंजन का यह गर्जन, तीक्ष्ण तुहिन का दंशन,
लगता उतना नहीं दुर्विषह, दारुण, दुखद, भयावन।
जितना नरपशु की कृतघ्नता का आचरण विषमतर,
चुभता द्रुण के लूम-डंक-सा अन्तर में निशि-वासर।
कभी दौड़ कर गन्धसार ले आता मलय समीरण,
उष्ण पवन पन्नग-सा करता गरल-अनल उद्गीरण।
गिरते सान्द्रस्निग्ध वर्षोपल नभ से मुक्ता के सम,
कभी धूप में चूते तन से स्वेदबिन्दु रजतोपम।
जम जाने पर हो जाता दधि के समुद्र-सा स्तम्भित,
कपिलवर्ण ध्वलातिधवल हिम के दुकूल से आवृत।
कभी उदय-वेला में रहता रश्मि-विम्ब से र´्जित,
करता, इन्द्रधनुष-सा निखिल चराचर को सम्मोहित।
हरित-पल्लवित लतादाम से शिलखण्ड अवगुंठित,
शोणरत्न लोहित प्रसून के कर्णपूर से मण्डित।
कहीं उल्लसित कुटिल-जटिल मंजुल तृण-पर्ण विदन्तुर,
दीर्घतीक्ष्ण अंकुर शिताग्र, वर्तुल, कंटकित, सदन्तुर।
बिछा हुआ हरिताभ मसृण कालीन गन्ध से सुरभित,
पाण्डुयवांकुद-से फूलों की शैय्या जिन पर निर्मित।
कहीं वास्तुकी आँखों में भर अभिनव अर्थ अपरिमित,
मातृभूमि के चरणों में करती विभूतिश्री अर्पित।
कहीं तीर पर पृथुलकाय चट्टानखण्ड, क्षितिलुंठित,
पड़ें उद´्चिित स्थानान्तिरित पर्त्त-पर-पर्त्त विखण्डित।
चमक रहे सिकताकण जिनमें रंग-बिरंगे शोभन,
अश्म, अयस, विदु्रम, हिंगुल, कलधौत पिरोजे के कण।
छा जाते स्वर्णिम मयूख सुषमावितान बन मनहर,
आतपत्र-सम नभमण्डल के पृथुकीर्तित मस्तक पर।
आते-जाते साथ-साथ मानस के तट पर क्षण-क्षण,
ग्रीष्म, शरद, हेमन्त, शिशिर, पावस, वसन्त उन्मादन।
जिसकी स्फटिकोपम मुक्तासम वारिधार में अवकिृत,
करते ऐसे तरण मनोरम जलविहंग उत्कंठित।
बिखर पड़े ज्यों महाकाश के रंगमंच पर विस्तृत,
गतिमय ऋक्षवृन्द छवि के नव अलंकार से मण्डित।
फट जाता जब वृष्टिवात से सहसा मानस का जल,
गहरे विवर-भंग बन कर मच जाती उसमें हलचल।
तब शम्पा की अग्निशिखोपम द्युतिलेखा-सी विलसित,
करती क्लिन्नपंख मीनों की अंगकान्ति आकर्षित।
जहाँ शुक्ल, धूसर, पिशंग, किर्मीर, जपोपम रोहित,
हरिद्राभ, ताम्राभ, नील´्जिष्ठवर्ण, सिन्दूरित।
जल के भिन्न पृथग्विध विहगवृन्द सर्वांगविभूषित,
हर्षित केलिनिरत रहते प्रिय कल कलरव से मुखरित।
छूते ही जिसके हिमजल को मणिदर्पण-सा निर्मल,
हो जातीं दिनकर की वे किरणें चन्दनसम शीतल;
जिनके तीव्र प्रचण्ड ताप से जल उठता धरणीतल,
झुलस ग्रीष्म में जाते हरितमंजु द्रुमपल्लव कोमल।
जहाँ चमकते चिकने कस्तूरे-से दुहरे-तिहरे,
नोकदार, आड़े-तिरछे, खुरदुरे, झिरझिरे, उभरे।
कुंठित, विषमकोण, वलयाकृति, लम्बशीर्ष, चमकीले,
परिवर्त्तित हिमतापवात से शिलाखण्ड परतीले।
रजत-धौत हिम से आच्छादित रहते जहाँ निरन्तर,
गगनसिन्धु में उत्थित संगहीन गिरिशृंग मनोहर।
कर लेते विश्राम ठहर कर क्षण-भर जिनके ऊपर,
फिर शकुन्त-सम उड़ने लगते कुंज-उनीले जलधर।
विविध रंग के जहाँ दिखाई देते श्यामवरण घन,
रवि-किरणों के शिलीमुखों से ढक जाने के कारण।
जलसीकर कुहरे के जम कर बन जाते हिम-सीकर,
छा जाते फिर टपक-टपक कर भू पर शैल-शिखर पर।
गिरि के मालशकट-से छागों-मेषों के दल प्रियतर,
तलहटियों में जहाँ मृदुल तृण अंकुर चरते दिन-भर।
लवणसुहागे के दो-दो थेले जिनकी पीठों पर,
चकित-भीत से दौड़ रहे सुन तीव्र सीटियों के स्वर।
तट-उपान्त में प्रतिध्वनित हो रहे तुमुल कोलाहल,
स्तवन-गान, अर्चन-कीर्त्तन से आन्दोलित दिग्मण्डल।
फहरा रहे चतुर्दिक गोम्पाओं पर ध्वज-तट-तोरण,
सो-सो सूचक ध्वनि-निनाद से उद्घोषित भू-प्रांगण।
ब्रह्ममानसोद्भव मानस का कैसा यह सम्महोहन?
कैसा इसका वशीकरण रे कैसा दिव्याकर्षण?
कैसा इसका वसन नीलमणि-सा यह नियनविलोभन?
कैसा इसका सुधा-अम्बु रे अघमर्षण-सा पावप?
नित्यतृप्त, बहुरूप, वृहद्वपु, ऋजुप्रिय, दूषणवर्जित,
नित्यसुखद, कलहंसकुलाकुल, चर्चनीय, सुर-वन्दित।
दिव्याम्बरधर, तापशमन, चिन्मय, ऋषिवृन्दप्रशंसित,
देवदेवप्रिय, यज्ञफलद, शुचि, तिग्मतेज, अकलंकित।
चिद्विलासमय श्रीविभूतिमत, द्युतिमत, मुक्तितरंगित,
घनानन्दरसक्षरण, नील अम्बुधि-सा कल कल्लोलित।
व्योकेश का अट्टहास इसके उर्मिल अन्तर में,
चन्द्रहास की छवि उद्भासित इसकी लहर-लहर में।
नगपति गल कर हुआ द्रवित, देखो इसके प्रांगण में,
शरदगगन के श्वेतवरण घन इसके मनोभवन में।
चिर मनोरमा पृथिवी जिसके चरण-प्रान्त पर कीर्तित,
आत्मदान करती उतार-कर उर-आवरण अनिन्दित।
खण्ड-खण्ड होकर जिसकी छवि-उर्मि-भँवर में घूर्णित,
बिखर रहे नक्षत्रपु´्ज, भूधर दुर्धर्ष अखण्डित।
शेषनाग के फणमण्डल-से ये गिरि-शृंग मनोरम,
गजकुमार-से गण्डशैल ये परम रम्य, सुन्दरतम।
पंकयुक्त, पर्वतमय, सिकतामय ये मानस के तट,
बरसाते नववारिपूर्ण कज्जल घन-सम रस के घट।
पवनशून्य क्षितितल पर निश्चल कज्जलध्वज-से विजड़ित,
आत्मनिवेदित-से जड़-चेतन मुग्ध मन्त्रवत कीलित।
क्या न अमर्त्यलोक का यह ज्योतर्मय दृश्य अलौकिक,
या कि मात्र भौतिक, पदार्थमूलक, नैसर्गिक, लौकिक।
उठा रहा यह अनवतप्त ह्रद भूमण्डल को ऊपर,
अमृत-ज्योति की ओर प्राणमय रूप, वर्ण, रस से भर।
कभी नहीं होता कि´्चित जो रागरेणु से स्पर्शित,
निष्कल्मष प्रज्ञा की निर्झरिणी जिससे निःस्यन्दित।
दुख, संशय चिन्ता, विषाद के कालकूट से विरहित,
तिमिर-मृत्यु के अंक न जिसके मनःक्षितिज पर अंकित।
तपःपूत रस-निर्झर जिसके हृदय-कुम्भ में संचित,
प्रक्षालित होता जिससे अन्तर्नभ का मल कलुषित।
फैल रहा कैसा यह अमित, अखण्ड प्रकाश प्रखरतर,
स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर के छा कर भीतर-बाहर।
मुक्त कर रहा अग्निदग्ध चेतन को जो विद्युत्मत।
जड़ गतप्राण अचेतन के कंठालिंगन से अविरत।
यहा नहीं रे दर्प, दम्भ, मत्सर के शूल प्रबलतर,
यहाँ नहीं रहता विषण्ण सन्तप्त व्यथा से अन्तर।
परम ध्यान में लीन यहाँ मन आत्मरमण में तत्पर,
शुद्धबोधिचिद्रूप यहाँ सर्वत्र सत्य, शिव, सुन्दर।
सफल हो गया इसे निरख कर मेरा दृढ, दुष्कर श्रम,
नेत्रों ने पा लिया आज दर्शन का फल अति अनुपम।
जाते रहे द्वन्द्वरत मम मन के मल, मलिन निबिड़तम,
वीतशोक मैं हुआ धन्य, उत्फुल्ल, प्रसन्न सुमन-सम।
(‘विशाल भारत’, मार्च, 1964)