मानसर के विमल वारि में ही नहीं,
खिल गया कल्मषित कीच में भी कमल।
अन्ततः हिमशिखर को पिघलना पड़ा,
दर्प का दस्तखत बन गया अश्रुजल।
है जटिल वो जे़हन के लिये आज भी,
आज भी वो हृदय के लिये है सरल।
देखते-देखते खो गई ख़्वाहिशें,
खुद-ब-खुद इक दुआ बन गई हर ग़ज़ल।