मानसिकता / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी
पिछली उम्र मुड़कर देखी तो जा सकती है
पर उम्र खुद कभी पीछे नहीं मुड़ सकती।
दो चार फूलों से अब नहीं बस सकेगी
तुम्हारी उजड़ी हुई फूलों की बस्ती।
मेरा फूलों-सा बदन,
तुम्हारे लिये बहारें वापस नहीं ला सकता।
उम्र के जिस मोड़ पर तुम खड़े हो
वहाँ से कोई रास्ता वसन्त तक नहीं जाता।
तुम चाह कर भी अब दोहरा नहीं सकते
देहों के उत्सवों के दिन।
सांझ से बड़े फासले पर है चढ़ती दोपहरी सा मेरा यौवन।
केवल मानसिकता से तुम्हें
वापस नहीं मिल सकती देह की मांसलता।
अगर बहारें ही जीवन में स्थाई होती
तो पतझरों की परवाह ही कौन करता?
मैं जानती हूँ, बहुत लुभाते हैं
तुम्हें मेरी भरी-भरी देह के आकर्षण।
पर मेरा बदन तो तुम्हें सिखा नहीं सकता
मन के या तन के संयम।
पर मैं तुम्हें इतना बता दूँ
यह तुम्हारे जीवन की दोपहरी नहीं है, संध्या है।
जीवन केवल भोग ही नहीं है संयम भी है, सामयिकता है।