भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मानसी के प्रति / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तेरे जीवन की तार रूकी,
मेरी कविता की धार रूकी,
तेरी मधुमय मनुहार रूकी
मेरे उर की झंकार रूकी।
तेरा स्नेहांचल दूर हटा
मेरे सपनों का प्यार मिटा।
तू ने ली ऑंखें मूंद तभी
मेरा यह लघु संसार लुटा।
तू दूर देश की अतिथि आज
मैं रो रो तुझे बुलाता हूॅं।तेरी स्मृतियों का हार लिए
मैं जीवन ज्वार सुलाता हूॅं।