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मानस-संतान / कुन्दन शर्मा / सुमन पोखरेल

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पार्वती ने गणेश को बनाया जिस तरह
कुन्ती ने कर्ण और पाँच पांडवों को जनम दिया जिस तरह
हमारे ऋषि-मुनियों, देवी-देवताओं ने मानस संतानों को
वरदान दिया जिस तरह, पाया जिस तरह
मैं भी अगर चाह सकूं - कर सकूं – पा सकूं तो
अपनी संतान निर्माण करूंगी - जन्म दूंगी – लेकर आऊंगी ।

हो सकता है, सृष्टि अब
तुम्हारे वीर्य और मेरे रज को इकट्ठा करके
जमा कर ले कहीं और,
हो सकता है, शिशु के लिए गर्भ भी
बनाया जाए इसी तरह कहीं और
और आवश्यकता अनुसार स्वस्थ संतानों की रचना कर
उन्हें पालने और प्यार करने के लिए ले आएं हम ।

तुम पति होकर भी
पिता नहीं भी हो सकते हो उस संतान के
तुम प्रेमी होकर
पिता भी बन सकते हो उसके
और वो पिता
कोई अज्ञात पुरुष भी हो सकता है
मुझे सिर्फ वीर्य का उपहार देने वाला
जिसकी खोज मैं खुद कभी नहीं करूंगी।

रिश्ते के नए मोड़ पर
खड़े हैं आज हम सब ।

संभोग तो बस शारीरिक आकर्षण है
सृष्टि की ज़िम्मेदारी मत सौंपो इसे
इसे भी अन्य जरूरतों की तरह स्वीकार करो
लेकिन हम जानवर भी नहीं हैं
इसलिए इस मन को खुद चुनने दो
वासना का स्तर अपना ।

मैं जोंक बनकर चिपकना नहीं चाहती
अपने अस्तित्व के लिए अब तुमसे
ग्लानि की आग में जलकर
राख हो रहा है मेरा व्यक्तित्व ।

उन्माद के पल में पाया हुआ
वीर्य की एक बूंद को
तुम्हारे वंश का तिलक लगाने का भार भी
उठाना नहीं चाहती मैं
मेरे अपने ही वंश का निर्णय करना है आज मुझे ।

मुझे पता है, तुम्हारा अहं स्वीकार नहीं कर पाएगा
मेरा इस तरह का समर्थ और स्वतंत्र अस्तित्व को
लेकिन मैं अपने भविष्य का क्षितिज देख चुकी हूँ
मैं अपनी आवश्यकताओं को समझ चुकी हूँ ।

मैं अपने रिश्ते का आधार
खुद तय करूंगी।

जरूरत होने पर मैं तुम्हारी ही नहीं
अपने लिए अपनी ही मानस-संतान पैदा करूंगी ।

तुम्हारी संतान से यह सृष्टि चली आई यहां तक
क्या तुम्हें यह लगता है,
कि मेरी संतान यहीं खत्म कर देगी इसे?
०००

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