भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माना के मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़कर नहीं हूँ मैं / 'मुज़फ्फ़र' वारसी
Kavita Kosh से
माना के मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़कर नहीं हूँ मैं
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं
इंसान हूँ धड़कते हुये दिल पे हाथ रख
यूँ डूबकर न देख समुंदर नहीं हूँ मैं
चेहरे पे मल रहा हूँ सियाही नसीब की
आईना हाथ में है सिकंदर नहीं हूँ मैं
ग़ालिब तेरी ज़मीं में लिक्खी तो है ग़ज़ल
तेरे कद-ए-सुख़न के बराबर नहीं हूँ मैं