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माना परिन्दों के दुमहले घर नहीं होते / राजेन्द्र गौतम
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माना परिन्दों के दुमहले घर नहीं होते
पर आदमी के भी सुनहले पर नहीं होते
वे खेत अपने इस कदर बंजर नहीं होते
बोए तुम्हीं ने अगर ये खंजर नहीं होते
यों तो बहस का मुफ़लिसी ही एक मुद्दा है
पर बहस से तो सब मसायल सर नहीं होते
भूली नहीं जाती कभी पहचान पल भर की
ख़ुद से मगर सम्बन्ध जीवन भर नहीं होते
गुलज़ार हैं जब से यहाँ बस्ती पिशाचों की
गन्धर्व विद्याधर मनुज किन्नर नहीं होते
तहजीब़ को जो बख़्शती हो नूर की नेमत
उस कौम के पुरखे कभी बन्दर नहीं होते