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माना मुझे नसीब तेरा डर नहीं हुआ / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'

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 माना मुझे नसीब तेरा दर नहीं हुआ
  मेरा जुनूने इश्क़ भी कमतर नहीं हुआ

  नदियाँ नज़र बचाके सब आपस में मिल गईं
  कमज़ोर फिर भी कोई समुन्दर नहीं हुआ

  भटका तो हूँ तलाश में, मंज़िल की उम्र भर
  लेकिन कमाल ये है कि बेघर नहीं हुआ

  मलबे तले दबी हुईं लाशों को देखकर
  हैरत की बात ये है, मैं पत्थर नहीं हुआ

  घर फूँकने की अब तो, रिवायत है भीड़ की
  अच्छा हुआ जो ज़द में मेरा घर नहीं हुआ

  मुस्तैद आदमी के पसीने से ये दयार
  ज़रख़ेज हो न हो कभी बंजर नहीं हुआ

  जब से हुआ ख़िलाफ़ हवेली के मैं ‘शलभ‘
  सर को नसीब कोई भी छप्पर नहीं हुआ