माना / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
माना, जग ने रोका है जिसको भी चाहा;
गानेवाले को रोका हो तो हम जानें!
आनेवाले तो ठहर कहीं जाते ही हैं,
जानेवाले को रोका हो तो हम जानें!
होगा कोई जो बना गया है ताज़ महल-
मन पर भी कोई ताज़ बनाया जा सकता!
वह राजमहल तो राज चलाता सीमा पर,
मन पर भी कोई राज चलाया जा सकता!
खोनेवाले पर दुनिया तो हँसती ही है-
पानेवाले को रोका हो तो हम जानें!
माना, जग ने रोका है जिसको भी चाहा;
गानेवाले को रोका हो तो हम जानें!
मन्सूबों में तो आग सदा लगती आयी,
जीनेवाली आशा उसमें भी होती है.
हर एक मरण में सन्नाटा अक्सर छाता,
जीवन की भाषा मरघट में भी सोती है!
छाया भी लू में झुलस, ठूठ बन जाती है-
छानेवाले को रोका हो तो हम जानें!
माना, जग ने रोका है जिसको भी चाहा;
गानेवाले को रोका हो तो हम जानें!
ले जाये कोई लूट किसी की बस्ती भी,
मस्ती उसकी दो-चार घड़ी भर जाती है.
सम्बल भी कोई छीन मुसाफ़िर का रख ले-
आगे की उसकी राह नहीं मिट पाती है.
हर एक सत्य पर दो पर्दा, लेकिन उसके
लानेवाले को रोका हो तो हम जानें!
माना, जग ने रोका है जिसको भी चाहा;
गानेवाले को रोका हो तो हम जानें!
हर एक प्यार पर रोड़े तुम बरसाते हो-
भानेवाले को रोका हो तो हम जानें!