भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मानो मानो संत कहनवाँ / रघुनन्दन 'राही'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मानो मानो संत कहनवाँ गहिला सद्गुरु की शरणवाँ।
जीवन चार दिनन मिलल जे, सुन्दर नर तनवाँ॥
करै के भजनवाँ ना॥
जग में आयल सुन्दर देह पाई, सद्गुरु शरण गहु धाय।
महिमा कौन कहै मुख एक, सहस न गुण गणवाँ॥
देखो बेद पुरनवाँ ना॥
नारी मातु पिता अरु भाय, अंत में कोई न सहाय।
जिनको प्रीति देहलो सेहो, भईलै एक दिन दुसमनवाँ॥
देखो खोलि नयनवाँ ना॥
जपो सद्गुरु के नाम, धरो गुरु रूप ध्यान।
निसि दिन भजन करियो, सुबह शाम भियनवाँ॥
होयथौं तोर कल्यणवाँ ना॥
हमरा यही एक पर आश, दूसर केकरो ना विश्वास।
जन ‘रघुनन्दन’ गुरु-कृपा से, छूटै भव के आवागमनवाँ॥
मन करि ला भजनवाँ ना॥