भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मान्यवरों मै भी कुछ बोलूँ अगर इजाज़त हो / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
Kavita Kosh से
मान्यवरो मैं भी कुछ बोलूं अगर इजाज़त हो
आज ज़ुबां के बंधन खोलूं अगर इजाज़त हो
लौट रहे बहती गंगा से नहा नहा कर सब
हाथ ज़रा क्या मैं भी धोलूं अगर इजाज़त हो
राग तुम्हारा मस्त कर रहा है तबियत मेरी
इस पर मैं थोड़ा सा डोलूं अगर इजाज़त हो
देकर मुझ भूखे को भोजन बाबू पुण्य किया
अब मैं उस पत्थर पर सोलूं अगर इजाज़त हो
सपनों के बाज़ार में चलने से इन्कार कहाँ
पर मैं अपनी जेब टटोलूं अगर इजाज़त हो
मैंने ये कब बोला तुमसे कोई शिकायत है
बस अपनी क़िस्मत पर रो लूं अगर इजाज़त हो