मान लिया है मझधारों से, ठोकर मिली किनारों से / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
मान लिया है मझधारो से, ठोकर मिली किनारों से
प्यार मिला है पतझरों से, नफ़रत मिली बहारों से
पास गया जब फूलों के तो सब ने ही मूँह फेर लिया
थाम लिया दामन, स्वागत सत्कार मिला है ख़ारों से
बीच डगर में डोड़ अकेला सभी उजाले चले गए
साथ मिला मंज़िल तक मुझको, सिर्फ घने अंधियारों से
दौलत के हर दरवाजे़ पर इठलाता अभिमान मिला
मानवता बस मिली झाँकती निर्धनता के द्वारों से
बिरहानल से दग्ध चकोरी के मानस की मौन व्यथा
अगर पूछना चाहो तो पूछा चलते अंगारों से
सुमनों से सज्जित डोली में बैठी दुलहन क्या जाने
पथ की दूरी ओर थकन का पूछो कहारों से
जो कुर्सी के लिए सभी कुछ करने पर हैं तुले हुए
होगा कैसे भला देश का उन पापी बटमारों से
पोंछ डाल आँखों के आँसू मानव भय को दूर भगा
नहीं पिघलते कभी संगदिल मिन्नत से, मनुहारों से
सच्चे दिल से फ़र्ज निभाना जग में जिसने सीख लिया
वंचित कभी नहीं रहता है, वह अपने अधिकरों से
काँव-काँव की इस बस्ती में स्वर की है पहचान किसे
कौन प्रभावित यहाँ ‘मधुप’ तेरे गंुजारों से