भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मान ली, मान गयी मैं हार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Kavita Kosh से
मान ली, हार मान गई.
जितना ही तुमको दूर ढकेला
उतनी ही मैं दूर भई.
मेरे चित्ताकाश से
तुम्हे जो कोई दूर रखे
कैसे भी यह सह्य नहीं
हर बार ही जान गई.
अतीत जीवन की छाया बन
चलता पीछे-पीछे,
अनगिन माया बजाकर वंशी
व्यर्थ ही पुकारें मुझे.
सब छूटे, पाकर साथ तुम्हारा
अब हाथों में डोर तुम्हारे
जो है मेरा इस जीवन में
लेकर आई द्वार तुम्हारे.