मान / प्रेमरंजन अनिमेष
मुसकुराता हुआ वह
बढ़ता मेरी ओर
बातें करने लगता आत्मीयता से
उसकी मुसकान
और ऑंखों की चमक से झलकता
वह मुझे अच्छी तरह जानता
पहले कहीं मिला होगा
हुआ होगा परिचय
पर इस समय ध्यान नहीं आ रहा
और कहिये कैसे हैं
क्या हालचाल है पूछता हूँ
सब कुशल मंगल तो है
घर में ठीक हैं सब लोग
आजकल कहाँ हैं ...
इसी तरह के सहज सुरक्षित सवाल
कि वह जान न पाए
अभी मैं उसे नहीं जानता
बातें करता
सोचता जाता ज़ाहिर किये बगैर
आखिर कब कहाँ हुई थी भेंट
कैसे किधर से वह जुड़ता है मुझसे
सुनता कहता
बड़े सँभाल से
कि पकड़ा न जाऊँ
और प्रतीक्षा करता
बातों ही बातों में
कोई सिरा मिले
जिससे पहचान खुले
माफ करिये भूल रहा आपका नाम ...
सीधे सीधे उसकी मदद ले सकता
पर डर है उसके आहत होने का
इतनी भली तरह वह मुझे जानता है
और मैं उसका नाम तक नहीं ...
अभी इतना भी
बड़ा नहीं हुआ
कि न हो इतना ख़याल
कोई मिले और आगे बढ़ जाऊँ कतरा कर
देख कर मुसकुरा कर हाथ हिला कर
निकल जाऊँ उसकी बातों के बीच से
रास्ता बना कर
कोई है जिसे याद हूँ
लेकिन मैं भूल गया हूँ
कुछ हैं
जिन्हें मैं नहीं जानता
पर वे मुझे
जानते हैं
ऐसे कितने हैं ...?
एक पल के लिए
जाने कहाँ से
तुष्टि सी जागती
जबकि संताप होना चाहिए था
अफसोस अपनी लाचारी पर
अब तक पहचान नहीं सका
हालाँकि वह इतनी देर रहा
इतना मौका दिया
चलूँ ...नहीं तो छूट जायेगी गाड़ी
अब वह जा रहा
अब भी नहीं मिला उसका नाम
शायद वह उतना सफल नहीं जीवन में
सफलता का अभी पैमाना यही
कितने तुम्हें जानने वाले
जिन्हें तुम नहीं पहचानते
यह एक ऐसा दौर
जिसमें स्मृति और पहचान
न होने का अभिमान ...!