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माफ़ करना / अदनान कफ़ील दरवेश

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 ऐ उर्वशी !!
आज तुम मेरी आँखों में
न देखो
और न मुझसे अपनी मासूम
स्वप्नों की दुनिया में
प्रविष्ट होने का आग्रह
करो।
और न मुझसे
किसी गीत की आशा रखो।

तुम सोच रही होगी
आज मुझे ये क्या हो गया?
हाँ, मुझे कुछ हो-सा गया है
आज मेरे सुर खो गए हैं
मेरे साज़ भग्न हैं
जहाँ मेरे स्वप्नों की बस्ती थी
वहाँ, अब, बस राख
और धुआँ है।

मेरी आँखों में विभीषिका के
मंज़र हैं
मत देखो मेरी तरफ़
शायद डर जाओगी
इन स्थिर नयनों में
डरावने दृश्य अँकित हैं —
कोई स्त्री चीत्कार और
रोदन कर रही है
तो कोई बच्चा भूख से व्याकुल
स्थिर तर नयनों से
न जाने क्या सोच रहा है?

जहाँ कोई तथाकथित रक्षक
भक्षक का नंगा भेस लिए
अपने शिकार की टोह में
घूम रहा है.
तुम इन आँखों में
निरीह बेचारों को भी
देख सकती हो
जो एक मकड़-जाल में
उलझे
सहायता की गुहार
लगा रहे हैं।

यहाँ तुम उन मासूमों को भी
पाओगी जिन्हें
हक़ के बदले गोली देकर
हमेशा के लिए
सुला दिया गया
या कारे की तारीकियों में
फेंक दिया गया
असभ्य और जंगली कह कर.
तुम यहाँ उन बेबस माओं
को भी देख सकती हो
जिनके बेक़सूर चिरागों को
दहशतगर्द कह कर
हमेशा के लिए बुझा दिया गया।

तुम कुछ ऐसे भी दृश्य
देख सकती हो जो
अत्यन्त धुँधले हो चुके हैं
शायद उन पर समय की
गर्द बैठ गई है।

क्या गीता, कुरान और
गुरु-ग्रन्थ की आयतें
नष्ट हो गईं ?
क्या बुद्ध की शिक्षाएँ
अपने अर्थ खो चुकीं?
मालूम होता है उन्हें
दीमकों ने चाट लिया है
फिर बचा ही क्या है
यहाँ ?

मैं नहीं जानता
कहो प्रिये !
मैं कैसे इस कड़वे यथार्थ को
भूल कर
स्वप्नों में विचरण करूँ?
कैसे प्रणय के गीत रचूँ?

(रचनाकाल: 2016)