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माफ़ कीजिए / नारायण सुर्वे

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जीना मुश्किल हो गया है फिर भी जीना है
सहने जैसा अभी बहुत कुछ है जिसे सहना है
घड़ीभर का है अंधेरा फिर तो भोर ही भोर है

फिर आज ही सारे हथियार डालकर क्या लौटना चाहिए ?
माफ़ कीजिए यह काम आप मुझको मत ही बताइए !

अपना जिसे कहें ऐसा कुछ नहीं रहा, जानता हूँ
दिन आता है सूना चला जाता है, जानता हूँ
कभी राह मिलती है कभी ख़ामोश होती है, जानता हूँ

टटोलते लड़खड़ाते चलना क्या छोड़ देना चाहिए ?
माफ़ कीजिए यह काम आप मुझको मत ही बताइए !

सितारों से आगे की दुनिया है मेरी नज़र में
एक फूल, एक दिल, एक क़िताब है मेरी नज़र में
नज़र गड़ा बैठा था, वह लमहा भी क़रीब में

अँधेरे के बंदी आप, बेकार धौंस मत जमाइए !
माफ़ कीजिए यह काम आप मुझको मत ही बताइए !

अस्मानी सूरत के सहारे कभी हम रहे नहीं
यूँ ही किसी को सलाम बजाना हमें रास आया नहीं

पैगम्बर बहुत मिले, झूठ बात नहीं कहते
अपने को भी बेकार हाथ जोड़ते कभी देखा नहीं

रहे हरएक में, हरएक को नज़र आए नहीं
हम ऐसे कैसे ? सवाल ऐसा अपने से किया नहीं

झुंड बनाकर ब्रह्माण्ड में रंभाते कभी घूमे नहीं
अपने को ही रचते गए, यह आदत अपनी छूटी नहीं ।

मूल मराठी से निशिकांत ठकार द्वारा अनूदित