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मामा जी का शहर / भाऊराव महंत
Kavita Kosh से
मामा जी का गाँव कभी था,
लेकिन जब से शहर हुआ है।
हँसी-खुशी खो गई कहीं पर,
लगता कोई कहर हुआ है।
प्रातः से लेकर संध्या तक,
व्यस्त रहा करते मामाजी।
देर रात थक जब घर आते,
पस्त रहा करते मामा जी।
बहुत बड़ा घर के होने से,
मामी जी को काम बहुत हैं।
झाड़ू-पोछा, भोजन-बर्तन,
उन कार्यों के नाम बहुत हैं।
बैठे रहते हैं बिस्तर पर,
नाना-नानी लिए दवाई।
लगता जैसे भोग रहे हैं,
वृद्धावस्था की कठिनाई।
टीवी–कम्प्यूटर होकर भी,
सूना–सूना घर लगता है।
इतनी जनसंख्या होकर भी,
मुझे शहर में डर लगता है।
यहाँ देखिए, वहाँ देखिए,
फैला चारों ओर प्रदूषण।
सबसे अच्छा लगता मुझको,
सुंदर-स्वच्छ गाँव का जीवन॥