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मामा जी की दाढ़ी / सूर्यकुमार पांडेय
Kavita Kosh से
कौए से भी ज़्यादा काली
स्याही से भी गाढ़ी है,
गालों को ढककर बैठी
यह मामा जी की दाढ़ी है।
आधे उजले, आधे काले
बाल हो गये हैं खिचड़ी,
बे-तरतीब घने जंगल-सी
उगी हुई यह बहुत बड़ी।
सीधी-उलटी, दायें-बायें
कुछ तिरछी कुछ आड़ी है।
जब भी गोदी में चढ़ता मैं
यह मुझको छू जाती है,
तब गुदगुदी बहुत मचती है
हँसी नहीं रुक पाती है।
सच मानो, यह दाढ़ी लगती
ज्यों काँटों की झाड़ी है।