भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मामूर शराबों से कबाबों से है सब देर / मीर तक़ी 'मीर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मामूर शराबों से कबाबों से है सब देर
मस्जिद में है क्या शेख़ प्याला न निवाला

गुज़रे है लहू वाँ सर-ए-हर-ख़ार से अब तक
जिस दश्त में फूटा है मेरे पांव का छाला

देखे है मुझे दीदा-ए-पुरचश्म से वो "मीर"
मेरे ही नसीबों में था ये ज़हर का प्याला