मायके आती बेटियां / संगीता शर्मा अधिकारी
मायका, नाम आते ही
चहकने लगती हैं बेटियाँ
आंखों के सामने पसर जाता है
फ्राक पहने हुए, दो चोटियाँ बाँधें
गली-मोहल्लों में
कैंपा कोला फेंटा, स्टापु,
विष-अमृत खेलता बचपन
ऊंचाई बढ़ने के साथ-साथ
फ्रॉक का सूट-साड़ी में
तब्दील होता मायका।
चिड़िया भी आह्लादित होकर
चहकने लगती है चारों ओर
जैसे मायके के नाम के साथ ही
चहकने लगती हैं बेटियाँ।
मायका, नाम के साथ ही
महकने लगती है बेटियाँ
खिलखिला उठता है
उनका अंग-प्रत्यंग
पोर-पोर होने लगता है सुवासित
मायके की महक से।
पतझड़ में भी महसूसने लगती है
बसंत का-सा मौसम
दरख़्त, पेड़-पौधे पाने लगते हैं
और अधिक विस्तार
हरीतिमा भी छा जाती है
अपने पूरे शबाब पर
फूल भी खिलकर
महकने लगते हैं चारों और
जैसे मायके के नाम के साथ ही
महकने लगती हैं बेटियाँ।
मायका आते हुए
गली के मोड़ से ही
सर पर बढ़ने लगते हैं
कई कपकपाते हाथ दुआओं के
आंटी, भाभी, दीदी, अम्मा,
मुंह बोली बड़ी बहन,
बुआ, मौसी, मामी, चाची
अनेक रिश्ते
साड़ी के कोर से बलईया लेते हुए
चुचकारने लगते हैं
मेरा और बालकों का माथा
गूंजने लगती है
हंसी-ठहाकों की आवाज़ें
पूरी गली में, कहते हुए-:
" यो तो कती तेरे पै गया है
और यो, यो तो अपणै बापू पै दिखे"
तरस जाते हैं कान सुनने को
ये बिना लाग लपेट के
प्यार भरे शब्द इन दिनों
मां छत से टकटकी बाँधे देखती है
लाडो को सीढ़ियों से
चौथी मंजिल, मायके तक आते
भाई दौड़ कर ले जाता है
हाथों से कपड़ों का थैला
और एक हाथ से
बाबू को गोद में उठा
तेजी से माँ बाबा की ओर
भागता चला जाता है।
नन्हीं भी मामा-मामा कहते
दौड़ती है उसके पीछे सरपट।
मां की सीख और जिम्मेदारियों को
साड़ी के कोर में बाँधे
थकी-टूटी-हांफती आती हैं बेटियाँ
सोचते हुए आज माँ की गोद में सर रख
मन से मन भर की थकान उतार लूंगी
ताकि बार-बार न थकुं अब
और माँ के गले लगते ही जैसे
उसका सारा तेज, सारी दुआएँ,
सारी कामनाएँ सीधे उसके भीतर
मां का सर को सहलाना ही
मिटा देता है सारी थकान बेटियों की।
वहीं कोने में चुपके से
बेटियाँ देख ही लेती है
पापा की दो जोड़ी आंखें
सहसा उनसे बरसने लगता है
सावन में बारिश की बौछार-सा
कभी रिमझिम तो
कभी उमड़ता-घुमड़ता
कभी ना ख़तम होने वाला
बेशुमार प्यार
पापा भी सर पर रखते हैं हाथ
उसी के साथ ले लेते हैं
बिटिया के सभी तनाव
अपने खुद के सर पर।
मां-पापा को हमेशा ही
बहुत चिंता रहती है बेटियों की
गाहे-बगाहे, हंसते-गाते-खिलखिलाते,
खाना खाते, बतियाते, उठते-बैठते
वो अक्सर पूछते हैं
ठीक तो है ना!
कोई तकलीफ तो नहीं?
अपना ख्याल रखा कर।
टाइम पर दवाई लिया कर।
टाइम से सोया कर।
देख, कितनी थकी-सी लग रही हैं तेरी आंखें,
जाने कब से सोई नहीं!
मां-पापा को हमेशा
थकी-थकी-सी ही लगती है बेटियाँ।
पता बदल गया है अब मायके का
वो फ्रॉक पहने, दो चोटियाँ बनाए
गली मोहल्ले में खेलता बचपन नहीं रहा अब
और नहीं रही वह दुआएँ
शुभाशीष देता वह गली-मोहल्ला
मां, बूढ़ा गई हैं बहुत इन दिनों
अब वह नहीं बना पाती पकवान
बिटिया के इंतजार में।
हार्ट में स्टंट डलने से
बहुत कमजोर दिल के
हो गए हैं पापा इन दिनों
फिर भी उन्हें रहता है
बिटिया की हर बात का ख्याल
उसके आने की खबर सुनते ही
जाने किस से पूछकर ले आते हैं
आयुर्वेदिक 100% शुद्ध शहद
कि " रोज सुबह गुनगुने पानी में डालकर
पिया कर वजन कम होगा, ठीक रहेगी सेहत"
"थायराइड बहुत बढ़ गया लगता है!"
ये आसन किया कर ठीक हो जाएगी।
और तो और बिटिया के
आने की खबर सुनते ही
अपनी बीमारी को दरकिनार कर
अदरक, नींबू, मिर्ची का मर्तबान भर
आचार डाल रखते हैं बिटिया के लिए
की आएगी, तो ले जाएगी
अपने साथ-अपने घर।
अपना घर
जाने कौन-सा होता है बेटियों का!
जब विदा किया, तब कहा
अपने घर जाओ
जहाँ भेजा, वहाँ से भी
अपने घर आने की याद
हर पल सताती है
आखिर तक भी बेटियाँ
खुद का कहां-कुछ बना पाती हैं
दो परिवारों को सदा अपने भीतर
पालती-पोसती ही रह जाती हैं।
मां-पापा के रहते ही
मायके बुलाई जाती है बेटियाँ
मायके जाती नहीं
सचमुच मायके आती है बेटियाँ।