मायापुरी / प्रतिभा सक्सेना
फिर तो मय-कन्या जब-तब ही आ जाती, दोनों मिल करतीं कितनी-कितनी बातें,
लेकिन अशोक-उपवन की वे निशिचरियाँ विस्मय में बिता रहीं थीं अपनी रातें!
अपने पितृकुल के और कुटुम्बी-जन के, मन्दोदरि सीता को बतलाती अनुभव!
दिन बीत रहे थे यों ही धीरे-धीरे, लंका-पति भी आजाते जब हो संभव!
सीता को रच-रच रुचि से सुना रही थी, प्रमुदित मन से उस दिन लंका की रानी,
मय दानव की पुत्री माया की बातें, उस महाद्वीप की विस्मयभरी कहानी!
'पूरव अतलान्त-महासागर घेरे है, पश्चिम प्रशान्त की है अगाध गहराई,
उत्तर में हिम-द्वीपों की श्वेताभा है दक्षिण में महाद्वीप का जुड़वाँ भाई!
कितने अक्षांश और कितने देशान्तर, आ समा गये जिसकी विशाल काया में,
गिरि माला-सी अपनी बाँहें फैलाये, संपूर्ण पश्चिमी तट को ले छाया में,
नीले जल में प्रतिबिम्बित होती छवियाँ, गिरि-हरीतिमा, सागर-वन से बतियाती,
चुप सुनती, तुंग तरंग फेन भर हँसती तट तक दौडी आतीं मोती बिखराती,
जलराशि, और शिखरों के मुक्त मिलन के बल खाते बिम्ब नाचते जल के तल तक
तालियाँ बजा नमकीन छिछोर हवायें गा आतीं क्षिति से लेकर गगनाँचल तक!
जब यहाँ रात हो वहाँ दिवस रहता तब, जब यहां दिवस तब वहाँ रात्रि की बेला,
इस धरती के दूसरे छोर पर स्थित, वह महादेश, आश्चर्यजनक अलबेला!
मेरी अग्रजा नाम है जिसका माया, ब्याही होकर उस महाद्वीप की रानी,
यह रात बीत जाये अपनी बातों में लो सुनो उसी की अचरज भरी कहानी!
पतझर के आने की आहट पाते ही, तरु लता-कुञ्ज उल्लासपूर्ण हो जाते!
नूतन आभा से भर जाते तरु-वीरुध पत्ते फूलों के रंगों में रच जाते!
अनगिनती रंगों में ऐसे रँग जाते धरती पर उतरे इन्द्र धनुष अनगिनती,
शीतल समीर झोंकों में जब लहराते, सौन्दर्य भरी लहरों पर लहरें उठतीं!
सिन्दूरी, पीले, स्वर्ण, अरुण, केशरिया, कत्थई, बैंगनी, हल्के-गहरे नीले,
जैसे निसर्ग में रंगों के फव्वारे चल रहे निरन्तर चमकीले-चटकीले!
जैसे कि विसर्जन से पहले जीवन की, संपूर्ण चेतना उत्सवमय हो जाये,
आनन्द-ग्रहण को नये आगमन के हित, निर्कुण्ठ-हृदय से आवाहन कर जाये!
उस जिजीविषा को देख समझ पाई हूँ, आनन्द और रस है वरदान प्रकृति का,
क्या अंतर पड़ता अगर मृत्यु निश्चित तो, वह हेतु मात्र है पुनर्नवन का चिति का!
झरनों में औ जल स्रोतों में रस बहता, रात्रियाँ? रात्रियाँ मदिर लास्य की बेला!
अगणित विद्युत के दीप सजे धरती पर, लगता जैसे हो नक्षत्रों की खेला!
घाटियाँ और पर्वत रंजित हो जाते, वन-श्री की उस मोहक अपार शोभा से,
उत्तर से दक्षिण पूरव से पश्चिम तक होती जो व्याप्त अपरिमित उस आभा से!
सीते, हैं भिन्न वनस्पतियां भी ऐसी, कितने-कितने दिन जरा नहीं मुरझातीं!
आकाश स्वच्छ नीलम से निर्मित हो ज्यों, सैकड़ों-सैकड़ों पुष्प, महमही धरती!
कलऋता नदी बह आती पातालों से,मीलों ऊँचे काटती अगम्य कगारे,
लगते अवास्तविक दृष्य, मोह-मय रातें औ सपनों से मायावी साँझ-सकारे!'
"माँ, फिर तो मायालोक कहो सचमुच ही, रानी माया और मायामयी प्रकृति हो,"
सीता विचार कर बोली मय-कन्या से," वह देश न जाने किस विधना की कृति हो!"
"हाँ माया- लोक!" हँसी मन्दोदरि रानी, "माया से यही कहा था मैने भी तो!"
दोनों की हँसी वाटिका में बिखरी, ज्यों जूही के फूल अचानक आन झरे हों!
उस दिन मन्दोदरि सहित दशानन जब अशोक वन में आया,
कर सकी न सीता अभिवादन, कह सकी न मुख से, "अहो, तात!"
अविरत नत नयन किये बैठी, लंका पति चुप-चुप देख रहा!
दोनो के बीच मौन में सिमटी द्विधा घिर उठी अनायास!
कर्तव्य पिता का निभा न पाया मन में यह संताप लिये,
किस मुँह से मै बोलूं जाकर और कहूँ कि पुत्री, सोच न कर,
जीवन के सारे राग-रंग, अभिशाप-ताप बन गये मुझे,
लंकापति न ये, जनक तेरा,प्रस्तुत आकुल-अंतर लेकर!
मन्दोदरि करती-सी प्रयास संबंध-सेतु बन सके सहज,
बोलती रही कुछ-कुछ, मन की द्विविधाओं से वे उबर सकें!
"कब तक लंकापति, खड़े हुये देखते रहोगे मेरा मुख?"
धी में हँस पडी और रावण बढ़ बैठ गया तरु के तल में!
उनके संवादों में अतीत जीवन के पृष्ठ लगे खुलने
इस तरह कि पुत्री का मन बोझिल न हो, क्षोभ से भऱ न उठे!
रावण ने सारा घटना-क्रम, अपनी दुर्बलता भी न छिपा,
यह कहा, "सभी व्याघातों का सचमुच ही जाता दोष मुझे!
अपयश मिलना हो मिले, आत्म-वंचन मैंनें न किया सीते,"
कहते कहते बस खिन्न हो उठा रावण का गहरा-सा स्वर,
अंतर से निकली हुई उक्ति, अंतस्तल तक पहुँची जाकर,
लेकिन सीता से बन न उसका कोई समुचित उत्तर!
सुन रही वही वाणी, प्रभात की पावन बेला की मुखरित,
पहचान रही जिसके स्वर से अभिभूत हो उठा था मानस,
जो सुना, अनसुना करती -सी चुपचाप और कुछ गुनती-सी,
सीता ने दृष्टि उठा देखा, कुछ सोच-मग्न स्थिर अपलक!
वातायन खुल जाये जैसे स्फूर्त पवन के झोंकों से,
कानो में वे ही स्वर, मन को छूते, देते कुछ नये अर्थ!
उत्सुक हो, करते हुये श्रवण शब्दों से आगे चली गई,
उठ गया हदय से बड़ा भार, पा गई कि जैसे नई अस्ति!
अति सौम्य भाव झलके मुखपर, हो गया शान्त उद्वेलित मन,
बँध गये अदृष्य सूत्र से तीनों के मन, मुख पर सुख अंकित,
शीतल सुगन्ध से भरा पवन, धरती का स्निग्ध आर्द्र आँचल
हिलती अशोक तरु की डालें, मानो करती हों अभिनन्दित!
यह कैसी छलना!
सच या सपना? शची इसी उपवन में?
विस्मित सीता संबोधित तत्क्षण वीणानिन्दित स्वर में-
"मेरे पति की भगिनी, सम्मानित अतिथि, देवि, हे पूज्य परम!
मैं पुत्र-वधू लंकेश्वर की, करती सुलोचना अभिवादन!"
सम्मानित कुल के शील और मर्यादा को धारण करती,
अपने आँचल का छोर थाम कर में, उन चरणों में झुकती,
अभिभूत हो गई वैदेही, आशीष वचन कहते-कहते,
देखा कि इन्द्रजित् स्वयं खड़ा, कुछ झिझका सा, आगे बढते!
नयनों से झरती स्नेह-सुधा, अभिषिक्त जानकी का तन-मन!
"प्रिय बहिन, जान कर धन्य हो गया, अपने पुर में शुभागमन!"
'है यही सहोदर भ्राता!' सीता आत्मविस्मृता निर्निमेष,
उर में न समाया वह सुख, छाई पुलकन रोमों में विशेष!
हो मुदित, पूछ कर कुशल- क्षेम, वे लौट गये अनुरूप युगल!
वह रूप रह गया अंकित हो सीता के नयनो में उच्छल!
साकार इन्द्र में पौरुषेय गुण सारे ही, यदि देवोचित,
तो इन्द्रजीत का विरुद इसी के लिये सटीक, परम वाँछित!