भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मायावी यह संसार / हरे प्रकाश उपाध्याय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अधिकांश चीज़ें मायावी हैं
मार तमाम संकटों के बीच ही
हँसी की बारिश
मार गुर्राहटों के बीच
कोयल की विह्वल पुकार
ऐ कोयल ! तुम पाग़ल हो और एक दिन तुम पाग़ल बना दोगी समूची दुनिया को
ऐ नदी ! तुम ज़रा इधर नहीं आ सकती शहर में
ऐ हवा, तुम अपना मोबाइल नं० दोगी मुझे
सुनो, सुनो, सुनो....

अधिकांश चीज़ें मायावी हैं...
जिनकी आवाज़ों के शोर के बजे नगाड़े
उनसे भागे जिया
जिनकी आवाज़ न आए
उसी आवाज़ पर पाग़ल पिया..
जहाँ रहने का ठौर, मन वहां न लागे मितवा
चल, यहाँ नहीं, यहाँ नहीं, यहाँ नहीं...
पता नहीं कहाँ
चल कहीं चल मितवा...
अधिकांश चीज़ें मायावी हैं...

जिन चीज़ों से प्रेम वे अत्यन्त अधूरी
इन अधूरी चीज़ों की भी महिमा गजब

यह जीवन सुखी-दु:खी एक पहेली...

जी नहीं रहे हम
बस अपनी उम्र के घण्टे-पल-छिन गिन रहे बस
और इसी गुणा-भाग में एक लम्बी उम्र गुज़ार कर
जो गए
उनके लिए मर्सिया पढ़ रहे हैं हम...