माया की पालकी : चर्यापद / कुबेरनाथ राय
चलता है रातभर माया का रथ
बेला कनेर के पुष्पभार से लदी
चींनाकुश ओहार सजी लाल लाल पालकी
अमावस की रात है, भय है, भीति है
उनींदी वस्त्रहीन कन्यायें है, रक्तचक्षु ब्राह्मण हैं
झाड़-फानूस है, रंग है, जुलूस है
चमचमाते बलि के खड्ग हैं
ओ प्रिया बान्धवी, देहरी से ही नमन करो
फिर करो कस कर दरवाजे बन्द
ओ जोगीरे बन्द करो दशमुख द्वार
ओ मेरी यार कान लगा कर ध्वनि सुनो,
"हाँ कँहारी, हुइहप्पा, हुइहप्पा
हासे हुसे, हासे हुसे
हुइहप्पा, हुइहप्पा,
शब्द प्रेत आते हैं द्वार पर
देते हैं दस्तक, माया का रथ है
कामना करायल थी, लपट है
तीखी गंध है
पीछे है माया की पालकी "हुइहप्पा।"
उनींदी कन्यायें हैं
रक्तचक्षु ब्राह्मण हैं
रातभर
रातभर
पश्चिम से पूरब की राह पर रातभर
चलती है माया की पालकी
न शंख, न तूर्य, न बाँसुरी
स्तब्ध, मूक मुदित चक्षु
लथ-पथ उद्भ्रान्त नारी-नर
माया की यात्रा यह रातभर!
उनींदी वस्त्रहीन कन्यायें हैं, रक्तचक्षु ब्राह्मण है
भाया की पालकी।