वे समुद्र से पलायन कर आए हुए लोग हैं,
वह सागर है — ’अर’
या वे कर आए हैं पलायन
सोमरस-स्रावी उस पीपल की छाया से
माया के प्रलोभन में !
अभेद यह जगत !
क्या दिन, क्या रात, जलती है रोशनी सदा ही
इहकाल-परकाल सब एकाकार
स्निग्ध, सर्पगन्धा, नभोनील चाँद तैरता है हृदयाकाश में
मायारूपी रोशनी झड़-झड़ जाती है
देते हैं आहुति उस रोशनी में जीवकुल-पशुकुल सभी
आहुति से होती है सृष्टि धुएँ की
धुएँ से मेघ, मेघ से बारिश की !
आलोकमेघ ! पुष्पवर्षा !
बारिश से पैदा होता है अनाज
साल दर साल लौट आता है साल
कट जाता है अनन्त चन्द्रमास धराधाम में
भरी पूर्णमासी में — न ही आहार, न ही तन्द्रा, न ही निद्रा
विभ्रान्त मनुष्य कुल, करता रहता है इकट्ठा अनाज पृथ्वी पर हमेशा
मूल बंगला से अनुवाद : सुलोचना वर्मा