मार्केज के पुनर्पाठ - 1 / अंचित
(विषय प्रवेश)
जितनी दूर जाता हूँ तुमसे-
उतना तुम्हारे पास।
दुनिया के अलग-अलग शहरों में
अलग अलग सीढ़ियाँ हैं।
और क़दमों को तो बस चलते जाना है।
प्रेम का जीव विज्ञान पैदा होता है
रात्रि के उदर से
और तुमसे दूर अपनी निर्मिति-अनिर्मिति से उलझा हुआ
स्वयं-हंता।
एक मन डूबता है-
पराए आसमान में।
एक असफल प्रयास कि
आत्मा अपनी यात्रा समाप्त करे।
तुम मेरी हार की सहयात्री हो-
मेरे साथ ही टूट कर बिखरी हुई.
निराशा के समय प्यास की पूर्ति।
बताओ
हम अपनी उम्मीदों का क्या करें-
जब तक वे नहीं टूटती
हम अपने प्रेमों का क्या करें-
जब तक वे असफल नहीं होते।
हम अपनी बाँहों का क्या करें कि
बार बार हमने इनमें नए प्रेम भरे?
आख़िरी सवाल अपनी संतुष्टि से करना चाहिए.
उसके पैरों में भँवर पड़े, इसका दोषी कौन है?
तुम जिस बिछौने पर सोयी हो-
उसका रास्ता अबूझ है
और मेरी महत्त्वाकांक्षा फिर रही है
दूसरे दूसरे शयनकक्षों में।