मार्केज के पुनर्पाठ - 2 / अंचित
(फ़्लॉरेंटीनो अराइज़ा के ख़त)
जहाँ सड़क ख़त्म होती थी वहाँ दूर बहुत दूर रात डूब जाती थी
और जहाँ सड़क शुरू होती थी, वहाँ एक कोने में बैठा मैं
रोज़ तुम्हारा इंतज़ार करता था।
इंतज़ार करते हुए जलता था चाँद से,
उसकी चमड़ी को दाग़ देना चाहता,
वैसे छूना था तुम्हारा जिस्म,
चाँद छूता था जैसे।
अपनी लाल शाल से जितना ऊन मैंने उधेड़ा,
हर धागा भरा तुम्हारे ना होने की बेचैनी से।
प्रेम खोए बिना कैसे प्रेम होता है ये मैं नहीं जानता
इसीलिए भी तुम्हारा न दिखना ज़रूरी था।
चाँद से चिढ़ता, मैं जिस-जिस स्त्री के पास गया,
उन सब की गोदों में समंदर थे और
मेरे अंदर की आग को और भड़काते रहे।
हर एक दिन जिस दिन तुमने मुझे याद नहीं किया
मेरा एक-एक केश सफ़ेद होता रहा।
जिस जिस रात तुम सोयी मुझसे दूर,
अपनी शर्मिंदगी को एक ताबीज़ में बांधे
बंदरगाहों पर भटकता रहा, समंदर खोजता।
तुम दिखोगी तब बसंत आएगा,
जब बसंत आएगा, मेरे शरीर पर फिर फूल उगेंगे।
तुम आओगी तो प्यार करोगी,
तुम आओगी तो मेरी ज़िंदगी भर जाएगी रातों से।
मैं यही सपना देखता था बिना सोए
और इसने ही मुझे जिलाए रखा ।